तमिलनाडु के इंजीनियर किसान ने आखिर कैसे खेती को कर दिया ट्रांसफॉर्म, कहा- क्रेडिट गोज टू ईशा एग्रो मूवमेंट

वल्लुवन पेशे से इंजीनियर हैं, मगर उन्होंने ईशा एग्रो मूवमेंट और सद्गुरु से प्रभावित होकर खेती करने की भी सोची। अन्नामलाई पहाड़ियों के बीच एक गांव में उन्होंने जमीन खरीदकर खेती शुरू की और आज वहां जबरदस्त बदलाव हुए हैं। 

नई दिल्ली। ईशा एग्रो मूवमेंट की सफलता से जुड़ी तमाम दिलचस्प कहानियां है। इन्हीं में से एक है वल्लुवन की। पोलाची  में उनका बड़ा सा फॉर्म है। कृषि बीट से जुड़े एक मशहूर पत्रकार ने उनके फॉर्म को देखने के बाद कहा था कि यह उनके  जीवन का अब तक का देखा गया सबसे अच्छा फॉर्म है। 

वल्लवुन का यह फॉर्म सफल और उम्दा जैविक खेती का नायाब उदाहरण है। यह पूरी तरह जैविक खेती पर आधारित है। वल्लुवन  2001 से ईशा फाउंडेशन से बतौर स्वयंसेवक जुड़े हैं। वह एक इंजीनियर हैं और खेती से जुड़ी उनकी कभी कोई पृष्ठभूमि नहीं रही। 

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सद्गुरु की बात का गहरा असर, किसानों की परेशानियों से सरोकार
वल्लुवन के मुताबिक, वह अक्सर सद्गुरु को किसानों की कठिनाइयों, खेती से जुड़ी चुनौतियों और समाज में हो रहे इसके प्रभाव के बारे में बोलते हुए सुनते थे। किस तरह हर जगह खेती की जमीन कम दाम पर बिक रही। वर्षा की कमी के कारण पैदावार कम हो रही। फसलों पर कीटों के हमले बढ़े हैं। खराब फसल और विभिन्न कारणों से पर्याप्त उपज नहीं होने से किसानों को उनकी मेहनत के बदले उचित मूल्य नहीं मिल रहा। 

किसानों को फायदे की खेती और उपभोक्ता को पौष्टिक भोजन कैसे मिले  
वल्लुवन के अनुसार, मैं हमेशा यह सोचता था कि किसानों के लिए खेती को कैसे फायदे का सौदा बनाया जाए और साथ ही, उपभोक्ताओं को स्वस्थ्य और पौष्टिक भोजन भी दिया जा सके। दोनों अलग-अलग सिरे थे और इन्हें मिलाना असंभव लग रहा था। फिर मैंने अपनी ओर से प्रयास शुरू किए। इसके लिए मैंने अन्नामलाई की पहाड़ियों के बीच वेत्तईकरनपुदुर गांव में खेत खरीदे। 

वालंटियर्स की बात शुरू में समझ में नहीं आई, मगर उनकी बात मानने का फैसला किया 
वल्लुवन के अनुसार, इसके बाद मेरा ईशा एग्रो आंदोलन के साथ सफर शुरू हुआ। मेरे खेतों में ईशा फाउंडेशन से जुड़े स्वयंसेवक आते और खेती से जुड़ी जानकारी शेयर करते। स्वयंसेवकों की बातें शुरू में मुझे अतार्किक लग रही थीं। खेती से जुड़ी उनकी कई बातें पसंद नहीं आईं। फिर भी मैंने उनकी बातों पर अमल करने का संकल्प लिया, क्योंकि मुझे खेती से जुड़ी चीजों के बारे में खुद कोई जानकारी नहीं थी। इस तरह, 2009 से यह खेती की विधिवत प्रक्रिया शुरू हुई। 

पहले जमीन पर फोकस किया, फसल की चिंता नहीं की 
उन्होंने बताया कि शुरुआत में खेतों में बदलाव देखना भी मुश्किल था। इसी  बीच सूखा पड़ा। फिर बारिश भी हुई। तब मैंने मिट्टी में आए फर्क को देखा और समझा। मैंने जमीन को करीब से समझना शुरू किया। फसल की मुझे चिंता नहीं थी। बाद में धीरे-धीरे और सकारात्मक बदलाव हुए, जिसमें मिट्टी के साथ-साथ फसल भी सुधरने लगी। अब खेत अद्भुत और अविश्वसनीय दिख रहा था। रसायनों के इस्तेमाल के बिना मिट्टी बदल गई थी। 

आत्मनिर्भर बनेगा किसान, खेती में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी 
वल्लुवन ने बताया कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है, खेत आत्मनिर्भर होता जा रहा है। धीरे-धीरे यह इस मुकाम पर पहुंच जाएगा कि हमें ज्यादा कुछ नहीं करना होगा। फसल की कटाई और उसकी बिक्री ही एकमात्र काम रह जाएगा हमारा। आज स्थिति यह है कि जो लागत इस खेत में लग रही है, उससे हर साल 11 लाख रुपए मुझे शुद्ध लाभ मिलता है। अब मैं बेटे की कॉलेज की वार्षिक फीस का भुगतान करने में सक्षम हूं। 

रासायनिक की तुलना  में जैविक खेती बेहतर रिटर्न देता है 
ईशा एग्रो मूवमेंट एक किसान आंदोलन है, जो रासायनिक खेती की तुलना में जैविक तरीके से की गई खेती में बेहतर आर्थिक रिटर्न सुनिश्चत करता है। साथ ही, किसानों को खेती में आत्मनिर्भर बनाता है। इस आंदोलन का लक्ष्य अगले पांच साल में आठ से दस लाख किसानों तक पहुंचना और उन्हें जैविक खेती के जरिए आत्मनिर्भर पद्धति से मुख्य धारा में लाना है। प्राकृतिक जैविक खेती समय की मांग है। यह टिकाऊ होती है। मिट्टी की रक्षा करती है और पानी के उपयोग को कम होने देती है। वहीं, अभी कई जगह हो रही रासायिक खेती के दुष्प्रभाव व्यापक रूप से देखे जा रहे हैं। यह एक किसान के लिए हमेशा से अस्थिर रहा है और उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। 

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