काशी में 14वीं शताब्दी से भी अधिक प्राचीन होलिकाओं का इतिहास मिलता है। काशी में कई होलिकाएं ऐसी हैं जो सदियों से जलती आ रही हैं। बनारस में होलिकाएं गंगा घाट से लेकर वरुणा पार तक अपनी प्राचीनता के साथ आज भी उसी अंदाज में जलाई जाती हैं।
वाराणसी: काशी की होली ही नहीं होलिकाओं की चर्चाएं भी पूरे देश में हैं। यहां रंगभरी में जहां भगवान शिव राजराजेश्वर स्वरूप में भक्तों के साथ होली खेलते हैं तो वहीं अगले दिन भूतभावन अपने गणों संग चिता भस्म की होली खेलते हैं। इस होली से राग और विराग के अंतर को मिटाया जाता है।
वहीं यहां जब बात होलिका की होती है तो 14वीं शताब्दी से भी अधिक प्राचीन होलिकाओं का इतिहास भी मिलता है। काशी में कई होलिकाएं ऐसी हैं जो सदियों से जलती आ रही हैं। बनारस में होलिकाएं गंगा घाट से लेकर वरुणा पार तक अपनी प्राचीनता के साथ आज भी उसी अंदाज में जलाई जाती हैं। शीतलाघाट की होलिका जहां गंगा से भी प्राचीन मानी जाती है तो वहीं कचौड़ी गली की होलिका भी 14वीं शताब्दी से जलती चली आ रही है।
मीडिया रिपोर्टस में बताया गया कि शीतला घाट पर जलाई जाने वाली होलिका का इतिहास काशी में गंगा से भी प्राचीन है। लोग बुजुर्गों से सुनते चले आए हैं कि यहां पर होलिका दहन किया जाता रहा है। मान्यता है कि होलिका दहन तब से हो रहा है जब काशी में गंगा की जगह रुद्र सरोवर हुआ करता था। आज भी काशी में होलिका यही जलाई जाती है। काशी विश्वनाथ दरबार में भी होलिका दहन की प्राचीन परंपरा अनवरत जाती है।
जानकार बताते हैं कि कचौड़ी गली के नुक्कड़ पर जलने वाली होलिका इतिहास भी 14वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है। कई जगहों पर इसका वर्णन भी मिलता है। कहा जाता है कि काशी में यहीं से होलिका में प्रह्लाद की प्रतिमा रखने की शुरुआत हुई थी।
चिता भस्म से खेली जाती है होली
बताया जाता है कि काशी में जब से चिताएं जल रही है तब से यहां होलिका दहन होता रहा है। होलिका दहन के अलावा होली का स्वरूप भी यहां अलग है। दुनियाभर में सिर्फ यही एक जगह है जहां चिता भस्म से होली खेली जाती है।
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