Dev Deepawali 2021: काशी में दिवाली के 15 दिन बाद क्यों मनाई जाती है देव दीपावली, जानिए क्या है इसका महत्व

मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया था। त्रिपुरासुर के वध की खुशी में देवताओं ने काशी में अनेकों दीए जलाए। यही कारण है कि आज भी हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा पर काशी में दिवाली मनाई जाती है। 

Asianet News Hindi | / Updated: Nov 19 2021, 07:00 AM IST

वाराणसी :  दिवाली के 15 दिन बाद, कार्त्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली (dev deepawali) मनाई जाती है। इस दिन काशी (kashi) में मां गंगा के घाटों पर लाखों दीपक शाम को जलाए जाते हैं। मान्यता है कि इस दिन देवी-देवता भी पृथ्वी पर उतर आते हैं और गंगा स्नान करने के बाद दीपोत्सव का त्योहार मनाते हैं। देव दीपावली पर घरों को दीये से सजाया जाता है। सुंदर-सुंदर रंगोली से मुख्य द्वार सजाया जाता है। यह त्योहार मुख्य रूप से शिव की नगरी काशी में बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं। इस दिन गंगा आरती के साथ गंगा के घाटों और शहर की हर गली में दीपक से रोशनी की जाती है। आइए जानते हैं क्या है इसके पीछे की पौराणिक कथाएं और क्या है महत्व?

काशी में ही क्यों मनाया जाता है देव दीपावली?
ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया था। त्रिपुरासुर के वध की खुशी में देवताओं ने काशी में अनेकों दीए जलाए। यही कारण है कि आज भी हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा पर काशी में दिवाली मनाई जाती है। चूंकि ये दीवाली देवों ने मनाई थी, इसीलिए इसे देव दिपावली कहा जाता है।

क्या है त्रिपुरासुर के वध की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। शिव पुत्र कार्त्तिकेय ने अपने पिता की सहायता से तीनों लोकों में आतंक मचाने वाले तारकासुर का अंत किया था। उसका प्रतिशोध लेने के लिए, तारकासुर के तीन पुत्रों ने घोर तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा। हे प्रभु ! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजित नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने उन्हें आशीर्वाद दे दिया। इसके बाद तीनों ने अपने आतंक से पूरी पाताल, धरती और स्वर्ग लोक में सभी को त्रस्त कर दिया था। देवता, ऋषि और मुनि भगवान शिव से सहायता मांगने गए और उनसे राक्षस का अंत करने की प्रार्थना की। इसके बाद भगवान शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध कर दिया। राक्षस के अंत की खुशी में सभी देवता प्रसन्न होकर भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंचे और इस दौरान उन्होंने काशी में लाखों दीए जलाकर खुशियां मनाई। जिस दिन ये हुआ, उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि थी। तभी से आज तक कार्तिक मास की पूर्णिमा पर काशी में बड़े रूप में देव दीपावली मनाई जाती है।

त्रिशंकु कथा का भी जिक्र
कहते हैं कि त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया था। देवता इससे नाराज होकर त्रिशंकु को स्वर्ग से भगा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निकाले जाने नाराज विश्वामित्र ने अपने तपोबल से पृथ्वी-स्वर्ग से अलग एक नहीं सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा की रचना शुरू की। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूंकना आरंभ किया। सारी सृष्टि डांवाडोल हो उठी। हर ओर कोहराम मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की प्रार्थना की। महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देव दीपावली के रूप में जाना जाता है।

विष्णुजी के जागने की खुशी में देव दीपावली
यह भी कहा कहा जाता है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार मास के लिए योग निद्रा में लीन हो जाते हैं और फिर वे कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। उस दिन उनका तुलसी विवाह होता है और इसके बाद भगवान विष्णु के योग निद्रा से जागरण से प्रसन्न होकर सभी देवी-देवताओं ने कार्तिक पूर्णिमा को लक्ष्मी और नारायण की महाआरती कर दीप प्रज्वलित कर खुशियां मनाई थी।

ये भी कथा
मान्यता यह भी है कि बाली से वामनदेव द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति की खुशी में सभी देवताओं ने मिलकर कार्तिक मास की पूर्णिमा को खुशी मनाकर गंगा तट पर दीप जलाए थे, तभी से देव दिवाली मनाई जाती है। इस पूर्णिमा को ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य ने महापुनीत पर्व प्रमाणित किया है। इसी दिन भगवान विष्णु ने सतयुग में मत्स्य अवतार लिया था। यह भी कहा जाता है कि इसी दिन देवी तुलसीजी का प्राकट्य हुआ था। कहते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा को ही श्रीकृष्ण को आत्मबोध हुआ था।

दीपदान का महत्व
देव दीपावली के दिन पवित्र नदी के जल से स्नान करके दीपदान करना चाहिए। ये दीपदान नदी के किनारे किया जाता है। इसका दिवाली से कोई संबंध नहीं है। लोकाचार की परंपरा होने के कारण वाराणसी में इस दिन गंगा किनारे बड़े स्तर पर दीपदान किया जाता है। इसको वाराणसी में देव दीपावली कहा जाता है। मान्यता है कि देव दीपावली के दिन पतित पावनी गंगा नदी में स्नान करने से समस्त पाप धुल जाते हैं और मां गंगा की सामूहिक आरती से जीवन धन-धान्य संपन्न हो जाते हैं।

1985 से शुरू हुआ घाटों पर दीये जलाना
काशी के प्राचीन मंगला गौरी मंदिर के महंत और देव दीपावली के संस्थापक पंडित नारायण गुरू बताते हैं कि कार्तिक मास में पंचगंगा तीर्थ का अपना स्थान है। प्रात: स्नान और शाम को दीपक जलाया जाता है। इस परंपरा को पहले राजा महाराजा ही किया करते थे, लेकिन फिर यह लुप्त होती गई। जब उन्होंने सिर्फ एक ही पंचगंगा घाट के बगल में दुर्गा घाट पर चंद दीपकों को ही जलते देखा तो यह ख्याल आया कि अन्य घाटों पर क्यों नहीं  दीये जलाया जा सकता है? फिर 1985 में चाय, पान और अन्य दुकानों पर पत्र के जरिए दीये और पंचगंगा घाट का भी महत्व बताया। जिसके चलते कुल 15 कनस्तर तेल जुटा और 15 हजार दीये एक घाट से बढ़कर पंचगंगा घाट के आसपास के घाटों पर जलाया जाना शुरू हो गया। 1986 में केंद्रीय देव दीपावली का गठन किया गया। जिससे सारे बिरादरी के युवक भी जुड़ गए। खुले मैदान की 7 किलोमीटर की लंबाई पर एक साथ दीपक जला पाना ईश्वर की कृपा से ही संभव हो सका है। अब तो वाराणसी प्रशासन और शासन की ओर से भी पिछले 3 साल से दीपक, तेल और बाती भी मदद के तौर पर दी जाती है। उन्होंने आगे बताया कि देव दीपावली की शुरूआत में 5-8 हजार दीपक जलाया गया था और अब लाखों की संख्या में दीये जलाए जाते हैं।

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