बंगाल से ग्राउंड रिपोर्ट: कैसे बांग्लादेश की सीमा पर रहने वाला आदिवासी समुदाय 'लाल' से 'भगवा' हो गया

करीब 7 दशक पहले बंगाल के मालदा जिले के हबीबपुर विधानसभा में रहने वाले आदिवासियों से आजादी का वादा किया गया था। यह वादा गरीबी, भूख, बीमारी, बेरोजगारी, अशिक्षा से आजादी का था। इस आजादी का 70 साल पहले कम्युनिस्टों की ओर से वादा किया गया था। 

Asianet News Hindi | Published : Apr 23, 2021 11:30 AM IST / Updated: Apr 23 2021, 05:07 PM IST

कोलकाता. करीब 7 दशक पहले बंगाल के मालदा जिले के हबीबपुर विधानसभा में रहने वाले आदिवासियों से आजादी का वादा किया गया था। यह वादा गरीबी, भूख, बीमारी, बेरोजगारी, अशिक्षा से आजादी का था। यह वादा कम्युनिस्टों की ओर से किया गया था। 

Swarajya के जगदीप मजूमदार की रिपोर्ट के मुताबिक, इस वामपंथी वादे के सच होने की बात तो दूर, आदिवासियों की हालत और खराब हो गई है। इतना कि उनके बीच मौजूद समर्थ बहुसंख्यकों को  भी रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है। इस छलावे को महसूस करने के बाद हबीबपुर के आदिवासियों ने दो साल पहले 'भगवामय होने का फैसला किया और भाजपा के प्रति उनकी निष्ठा गहरी हो गई।

हबीबपुर में आदिवासी बस्ती का इतिहास 

हबीबपुर में बड़ी संख्या में आदिवासियों की उपस्थिति इस तथ्य को देखते हुए असंगत लग सकती है कि यह स्थान छोटानागपुर पठार से काफी दूर है। यह आदिवासियों का मुख्य तौर पर घर माना जाता है। 

अंग्रेजों ने आदिवासियों की भर्ती उत्तर बंगाल और असम के चाय बागानों में काम करने के लिए की। हबीबपुर में रहने वाले आदिवासियों के पूर्वजों को पूर्वी बंगाल (जो कि 1947 में पूर्वी पाकिस्तान और 1971 में बांग्लादेश बना) में ले जाया गया था। हालांकि, उनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, उत्पीड़न और बंगाल में मुस्लिमों द्वारा इस्लाम में परिवर्तित करने की कोशिशों के चलते वे वहां से भागकर वर्तमान झारखंड और छत्तीसगढ़ (छोटानागपुर पठार) आ गए जहां से उनकी उत्पत्ति हुई थी। हालांकि, कई कारणों के चलते वे लोग अपने घर नहीं लौट सके और मालदा के इस इलाके में बस गए। 

कृषि पर हुए आश्रित

यहां बसने के बाद, आदिवासियों ने जमीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया। पैदावार मध्यम थी। लेकिन कुछ सालों में, सिंचाई की कमी, भूजल स्तर में लगातार गिरावट, उर्वरकों की पहुंच में कमी और उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की कमी की वजह से पैदावार में लगातार गिरावट आई। ऐसे में यहां के युवा दूसरे राज्यों में पलायन के लिए मजबूर हो गए। 

कम्युनिस्टों द्वारा खोखले वादे

हबीबपुर कम्युनिटी डेवलेपमेंट ब्लॉक के सदस्य और सीपीआई के पूर्व  नेता सुकुमार मुर्मू के मुताबिक, कम्युनिस्टों ने भोले और सरल आदिवासियों को चांद का सपना दिखाकर इनमें अपनी पकड़ बनाई। कम्युनिस्टों ने कई वादे किए। उन्होंने वादा किया कि यहां ग्रामीण बैंक बनाई जाएगी, ताकि किसानों की आय बढ़ सके, किसान अपनी फसलें बेंच सके। अच्छे बीजों की किस्में उपलब्ध कराने जैसे कई वादे किए गए।

वहीं, 2018 में सीपीआई से इस्तीफा देने वाले 69 साल के विश्हू बताते हैं, कम्युनिस्टों ने यहां औद्योगिक इकाइयां स्थापित करके रोजगार के अवसर पैदा करने का वादा किया। लेकिन ऐसी एक भी इकाई स्थापित नहीं की गई है और कोई निजी निवेश नहीं हुआ है। 
 
उत्तर माल्दा से सांसद खगेन मुर्मू बताते हैं कि कई और वादे हबीबपुर के विकास के लिए किए गए थे। लेकिन ये सब कागजों तक ही सीमित रह गए। स्कूलों से लेकर अस्पतालों तक कुछ भी विकास कामम नहीं किया गया। 

खगेन मुर्मू सीपीआई (एम) के नेता थे। वे तीन बार हबीबपुर से सीपीआई एम के टिकट पर जीते। इसके बाद उनका मोह पार्टी से भंग हो गया और 2019 लोकसभा चुनाव से पहले वे भाजपा में शामिल हो गए। खगेन ने उत्तर मालदा सीट से तृणमूल के मौसम नूर को हराया। जो राज्य के पूर्व रेलवे मंत्री बीए घनी खान के भतीजे हैं। 

1962 चुनाव के बाद हबीबपुर सीट हमेशा सीपीआई (एम) के पास रही। इस सीट पर सिर्फ 1967 में एक बार कांग्रेस जीती। इस सीट पर जीत के बाद भी सीपीआई ने कोई विकास कार्य नहीं किया। 

कैसे भगवामय हुए आदिवासी?
हबीबपुर में भाजपा 1990 के दशक से सक्रिय हुई। सबसे पहले यहां एससी समुदाय भगवामय हुआ। बामनगोला के गांव जगडाला की रहने वाली रीना देवी कहती हैं कि हम सीपीआई-एम द्वारा पूरी तरह से उपेक्षित थे जिन्होंने हमें केवल वोट के तौर पर माना और केवल चुनावों के दौरान इस्तेमाल किए गए। हम हमेशा गरीब ही रहे। 

हबीबपुर में भाजपा 2001 से अपनी स्थिति मजबूत करने में जुट गई। 2006 में खगेन मुर्मू काफी कम अंतर से भाजपा के प्रत्याशी रामलाल हंदसा से जीते थे। 

2011 में भाजपा का प्रदर्शन खराब हो गया। यहां से भाजपा प्रत्याशी कृष्णा चंद्रा मुंडा को सिर्फ 20% वोट मिले। वहीं, 2016 में भाजपा के प्रदीप को 22.59% वोट मिला। जबकि 2019 के उप चुनाव में भाजपा के जोयल मुर्मू को 92300 वोट मिले। जो कि कुल वोट का 50% था। 

जोयल मुर्मू को भाजपा द्वारा दोबारा चुना गया है। जबकि 2016 में भाजपा के प्रत्याशी रहे प्रदीप बक्षी को टीएमसी ने टिकट दिया है। गरीबी के अलावा बेरोजगारी, पिछड़ापन और विकास की कमी और बांग्लादेश से आए मुस्लिमों से उत्पीड़न इस क्षेत्र में भाजपा के बढ़ने की मुख्य वजह बना। 

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