
प बंगाल की 294 सीटों पर दो महीने तक ग्राउंड पर हुई स्टडी में वोटरों को लेकर एक दिलचस्प बात सामने आई है। जब वोटरों ने इस चुनाव में उनकी पसंद के बारे में पूछा गया तो कुछ ने खलकर बात की। जबकि ज्यादातर या तो शांत रहे या उन्होंने दबी आवाज से अपनी बात कही। लोग जब सत्ताधारी पार्टी के समर्थक होते हैं, तो वे बोलते हैं। लेकिन जब वे बदलाव का मन बना लेते हैं, तो शांत हो जाते हैं। जो लोग परिवर्तन की बात कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर वाम दलों और टीएमसी के पूर्व समर्थक हैं। वहीं, ग्राउंड पर भाजपा का ज्यादातर समर्थक टीएमसी और लेफ्ट पर बढ़त बनाने के लिए ज्यादा सतर्क नजर आ रहे हैं।
आतंक और भ्रष्टाचार का शासन
पूरे बंगाल में सबसे पहले एंटी-टीएमसी भावनाओं की शुरुआत 2018 पंचायत चुनाव से हुई थी। सीपीएम के पदाधिकारियों से लेकर आम लोगों तक सभी बताते हैं कि कैसे विरोधी दलों के उम्मीदवारों को मतदान देने की अनुमति भी नहीं दी गई। इतना ही नहीं लोगों ने बताया कि किस तरह से राजनीतिक हिंसा की घटनाएं सामने आईं। यहां तक कि विरोध करने वालों के खिलाफ पुलिस केस दर्ज किए गए। यहां तक की 9 बार के सांसद बसुदेब अचारिया को भी नहीं बख्सा गया, जब वे अपने पार्टी के उम्मीदवार का नामांकन भराने की कोशिश में थे। वहीं, पुलिस भी इसमें लगातार साथ देती रही।
यही वजह कि लेफ्ट समेत ज्यादातर लोग चाहते हैं कि चुनाव में केंद्रीय बलों को तैनात किया जाए। इसमें पुलिस की कोई भूमिका ना हो। टीएमसी के खिलाफ माहौल बनने का दूसरा बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। टीएमसी में ज्यादातर स्थानीय नेता ठेकेदार, व्यापारी और अन्य प्रमुख वर्गों से हैं, इसलिए ना सिर्फ राज्य के संसाधनों को लूटा गया, बल्कि जनता को भी उसके हक से बंचित रखा गया।
बंगाल में परिवर्तन की चल रही लहर
बंगाल अलग है क्योंकि यहा लोग समय-समय पर बदलते रहते हैं। जब इच्छा होती है, लोग अपना मन बना लेते हैं, फिर मतदान के दिन तक शांत रहते हैं। यही 1977 और 2011 में हुआ था। यही 2021 में होगा। यह बात झारग्राम विधानसभा के लालगढ़ में मौजूद एक ओबीसी मतदाता ने कही।
यह बयान विरोध में नहीं था, बल्कि, यह एक संकेत था, जो बंगाल में 294 विधानसभाओं में अध्ययन के दौरान जमीनी तथ्य नजर आया। मौजूदा वक्त में मुस्लिमों को छोड़कर ज्यादातर वोटर परिवर्तन का मन बना चुके हैं। सीधे तौर पर भले ही कोई वोटर इस बात को ना स्वीकारे। लेकिन अगर समुदाय के तौर पर देखें तो दलित, आदिवासी, राजबंश, चाय आदिवासी से लेकर गोरखा और यहां रहने वाले हिंदी भाषी भी यही चाहते हैं।
तूफानगंज विधानसभा में रहने वाले एक राजबंशी दलित का कहना है कि एनआरसी और के बीच विरोधाभास सारहीन है। इसका मकसद बांग्लादेश से आने वाले मुस्लिमों की घुसपैठ को रोकना है। वहीं, जब उनसे बांग्लादेश से आए नमोशूद्र दलितों को लेकर पूछा गया तो उन्होंने कहा कि बांग्लादेश के हिंदू भारत नहीं जाएंगे तो कहां जाएंगे। यह भावनाएं बंगाल में आसानी से देखने को मिल रही हैं।
भाजपा से कैसे पिछड़ रही टीएमसी
इस सड़क की देखरेख प बंगाल सरकार के PWD विभाग द्वारा की जाती है। लेकिन इस तरह के बोर्ड राज्य के हर कोने पर लगभग यात्रियों को देखने को मिल ही जाते हैं। क्षेत्र बदल सकता है। यह कूचबिहार से दार्जलिंग और सुंदरबन तक कोई भी हो सकता है। लेकिन यह बोर्ड लगभग बराबर आकार के एक ही रंग रूप और एक ही संदेश के साथ हर जगह देखने को मिलते हैं। बंगाल में सड़कों का यही हाल है।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो राज्य में स्थानीय लोगों में टीएमसी नेताओं के लिए धारणा है कि वे भ्रष्ट, राउडी और अभिमानी हैं। लेकिन डर के चलते लोगों की नापसंद और सत्ताधारी पार्टी के लिए गुस्सा धुंधला हो जाता है। लोगों का मानना है कि अगर वे भ्रष्टाचार पर सवाल उठाएंगे, तो उन्हें हमले का सामना करना पड़ेगा, या फिर उनके खिलाफ गलत केस दर्ज किए जाएंगे।
टीएमसी के अन्याय का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 24 नॉर्थ परगना के बोनगांव में एक व्यापारी और होटल मालिक बिप्लब पाल ने 2018 पंचायत चुनाव में भाजपा उम्मीदवार का समर्थन कर दिया। इसके बाद विकास के नाम पर उसके होटल के सामने इस तरह से सड़क निर्माण की गई कि वह फ्रंट गेट का इस्तेमाल भी नहीं कर पा रहा है। इसके चलते उसके बिजनेस को काफी नुकसान पहुंचा। टीएमसी से इसका बदला लेने के लिए पाल ने 2018 में भाजपा जॉइन कर ली और अब जिला महासचिव है।
भाजपा ने कैसे वाम दलों के समर्थकों को अपने पाले में लिया
2019 में लोकसभा चनाव में भाजपा ने 40% वोटों के साथ 18 सीटें जीती थीं। 2016 विधानसभा चुनाव की तुलना में यह 30% अधिक था। 2019 में लेफ्ट समर्थकों का वोट भाजपा के खाते में गया। लेफ्ट के वोट 2016 की तुलना में 26.6% से घटकर 7.5% पर आ गए।
जबकि राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नारा 'राम पौरी बाम' (पहले भाजपा फिर वामपंथी) एक्सप्लेनर बन गया। इस नारे का एंकर और इसके पीछे का इरादा विवादास्पद बहस का विषय बन गया। वामपंथियों के लिए, नारा गुमराह करने वाला था। इसे भाजपा और अन्य हिंदुत्व से जुड़े लोगों ने रणनीति के तहत तृणमूल विरोधी भावनाओं को भुनाने के लिए इस्तेमाल किया था। वहीं, सीपीएम से भाजपा में जाने वाले तमाम लोगों ने इसे स्वीकार किया है कि इन नारे ने अहम भूमिका निभाई।टीएमसी विरोधी माहौल में पीएम मोदी और अमित शाह ने राज्य में लेफ्ट का नेतृत्व ना होने का भी फायदा उठाया।
राज्य में मुस्लिम वोट टीएमसी के पीछे मजबूती से खड़ा
जैसे-जैसे बंगाल विधानसभा चुनाव की तारीखें नजदीक आ रही हैं, अटकलें बढ़ती जा रही हैं कि मुस्लिम वोट किस ओर रुख करेगा। पहले ही धारणा बन चुकी है कि AIMIM के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के चुनाव में आने से मुस्लिम वोट बटेगा। इतना ही नहीं यह भी कहा जा रहा है कि अगर ममता को सत्ता में आने से रोकने में ओवैसी और सिद्दीकी प्रमुख कारणों में से एक होंगे।
दिलचस्प है कि भाजपा समर्थक और भाजपा विरोधी दोनों ही इस धारणा को मान रहे हैं। माना जा रहा है कि राज्य में अच्छी खासी तादाद में मुस्लिम ममता ने नाराज हैं, जैसे अन्य हिंदू वर्ग हैं। यह भी कहा जा रहा है कि ओवैसी ने बिहार में यह सिद्ध कर दिया है कि मुस्लिम मुस्लिम केंद्रित पार्टी में वोट देना पसंद करते हैं। खासकर उन क्षेत्रों में जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। लेकिन जब सभी 294 सीटों पर जमीनी स्तर पर देखा गया, तो ये सब तर्क गलत साबित होते हैं। बंगाल में मुस्लिम ममता के साथ मजबूती से खड़ा नजर आता हैं, यहां तक की मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों में भी।
बंगाल में जयश्रीराम का महत्व
एक वोटर कहता है कि जय श्रीराम हमारे लिए तकियाकलाम बन गया है। ठाकुरनगर में मठुआ समुदाय के वोटर ने कहा, हमने शुरू में इसका इस्तेमाल तृणमूल को चिढ़ाने के लिए किया, लेकिन अब यह स्वाभाविक रूप से अच्छा कह रहा है। यह अंग्रेजी के गुड मॉर्निंग जैसा बन गया है। जब उससे पूछा गया कि जय दुर्गा और जय काली का बंगाल से ज्यादा गहरा जुड़ाव है। इसके जवाब में उसने कहा कि राम हमारे लिए आपकी तरह ही जाना पहचाना है।
प बंगाल में जय श्री राम के नारे के इस्तेमाल का बढ़ना तीन घटनाओं की वजह से नजर आता है। पहला आसनसोल में 2018 में रामनवमी पर सांप्रदायिक दंगों के वक्त। दूसरा मई 2019 में ममता बनर्जी के काफिले के सामने जय श्री राम नारे लगाने पर उनका नाराज होना। और आखिरी इस साल 23 जनवरी को जब पीएम मोदी के सामने सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर ममता को चिढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल किया गया।