सार
लोकतंत्र में सरकार और सिस्टम का कंट्रोल जनता की वोट की शक्ति के जरिए होता है। जो यह सोचते हैं कि एक अकेले वोट से कोई फर्क नहीं पड़ता उन्हें 1962 से 2014 के बीच लोकसभा की इन सीटों के नतीजों को याद रखना चाहिए।
नई दिल्ली। बिहार में 243 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव (Bihar Assembly Elections) की सरगर्मियां तेज हैं। हालांकि अभी शेड्यूल की घोषणा नहीं हुई है मगर बिहार के साथ ही साथ कुछ राज्यों में भी नवंबर के आखिर तक उपचुनाव होना तय है। चुनाव लोकतांत्रिक देशों में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए मतदाता उम्मीदों पर खरा न उतरने वाले दलों, प्रतिनिधियों को हराने या जिताने का अधिकार पाते हैं। जनता के यही प्रतिनिधि सरकार बनाते और चलाते हैं।
लोकतंत्र में सरकार और सिस्टम का कंट्रोल जनता की वोट की शक्ति के जरिए होता है। जो यह सोचते हैं कि एक अकेले वोट से कोई फर्क नहीं पड़ता (One Vote Importance) उन्हें 1962 से 2014 के बीच लोकसभा की इन सीटों के नतीजों को याद रखना चाहिए।
भारत के चुनावी इतिहास में ये वो 13 लोकसभा सीटें (Lowest Victory Margins In Lok Sabha Elections) हैं जब प्रत्याशियों की हार-जीत का अंतर बेहद मामूली था। कई जगह तो अंतर 10 वोट से भी कम रहा। समझा जा सकता है कि काउंटिंग के दौरान उम्मीदवारों की सांस तक अटक गई होगी। इसमें कई ज़्यादातर ईवीएम (EVM) से पहले के हैं। चूंकि बैलेट पेपर से गिनती में काफी समय लगता था। टफ़ेस्ट मुकाबलों में दोबारा गिनती करानी पड़ी। मतगणना करने वाले कर्मचारियों के पसीने छूट गए थे।
लोकसभा में पहली बार कब हुआ था 9 वोट से हार-जीत का फैसला
चुनाव आयोग (Election Commission of India) के पास लोकसभा की टफ़ेस्ट मार्जिन वाली सीटों का रिकॉर्ड है। इसके मुताबिक पहली बार 10 से भी कम वोट से हार-जीत का फैसला 1989 में हुआ था। तब कांग्रेस के उम्मीदवार के. रामकृष्ण ने आन्ध्रप्रदेश की अनाकपल्ली सीट महज 9 वोटों के अंतर से कब्जा किया था।
9 साल बाद बिहार में भी रुक गई थी सांस
इसके 9 साल बाद दूसरी बार 10 वोटों से कम अंतर पर हार-जीत का फैसला 1998 में बिहार की एक लोकसभा सीट पर देखने को मिला था। उस वक्त बीजेपी के सोम मरांडी ने राजमहल की लोकसभा सीट मात्र 9 वोटों के अंतर से जीतने में कामयाबी पाई थी। इससे पहले 1996 के लोकसभा चुनाव में गुजरात में भी क्लोज फाइट दिखी थी। तब कांग्रेस उम्मीदवार सत्यजीत सिंह गायकवाड़ ने बड़ौदा लोकसभा सीट महज 17 मतों से जीती थी।
1962 से 2014 तक लोकसभा चुनाव की सबसे क्लोज फाइट
साल | नाम | लोकसभा सीट | पार्टी | राज्य | जीत का अंतर |
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1962 | रिसंग | आउटर मणिपुर | सोशलिस्ट | मणिपुर | 42 |
1967 | एम राम | करनाल | कांग्रेस | हरियाणा | 203 |
1971 | एमएस शिवसामी | त्रिचेंदर | डीएमके | तमिलनाडु | 26 |
1977 | देसाई दजीबा बलवंतराव | कोल्हापुर | पी एंड डब्ल्यू पार्टी | महाराष्ट्र | 165 |
1980 | रामायण राय | देवरिया | कांग्रेस | उत्तर प्रदेश | 77 |
1984 | मेवा सिंह | लुधियाना | शिरोमणि अकाली दल | पंजाब | 140 |
1989 | के रामकृष्ण | अनाकपल्ली | कांग्रेस | आंध्र प्रदेश | 9 |
1991 | राम अवध | अकबरपुर | जनता दल | उत्तर प्रदेश | 156 |
1996 | सत्यजीत गायकवाड | बड़ौदा | कांग्रेस' | गुजरात | 17 |
1998 | सोम मराण्डी | राजमहल | बीजेपी | बिहार | 9 |
1999 | प्यारेलाल शंकवार' | घाटमपुर | बीएसपी | उत्तर प्रदेश | 105 |
2004 | पी पुकुनिकोया | लक्षद्वीप | जनतदल यूनाइटेड | लक्षद्वीप | 71 |
2014 | थुपस्तान चेवांग | लद्दाख | बीजेपी | जम्मू कश्मीर | 36 |
सोर्स : भारत चुनाव आयोग
बिहार के अलावा कई जगह उपचुनाव (Byelection) हो रहे हैं। ऐसे में यह सोचना कि एक वोट से कोई फर्क नहीं पड़ता, आपके पसंदीदा उम्मीदवार और पार्टी दोनों के लिए मुश्किल साबित हो सकता है। अच्छा यह होगा कि अपने मताधिकार का प्रयोग जरूर करें।