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श्मशान में अपना जन्मदिन मनाते थे लालजी टंडन, एक हादसे ने बदल दी थी उनकी जिंदगी
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लालजी टंडन भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे। उन्होंने अपने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे लेकिन वह हमेशा कहते थे कि भगवान भोलेनाथ सब ठीक करेंगे। लालजी टंडन कभी यूपी की राजनीति में ऐसी शख्सियत हुआ करते थे जिनसे विपक्षी भी स्नेह रखते थे। उनका उदार ह्रदय ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी।
यह शायद शिवभक्त होने का प्रभाव था कि वैभवशाली जीवन जीने वाले टंडन ने अपना जन्मदिन मनाने का स्थान श्मशान चुना। वह कहते थे 'व्यक्ति अपने प्रत्येक जन्मदिन के साथ अपनी मृत्यु के और निकट पहुंच जाता है। मेरा मानना है कि मृत्यु हम सबके लिए वरणीय हो, इसके लिए जीवन को निष्काम भाव से जीना जरूरी है। मैं मानता हूं कि मृत्यु जीवन के विश्राम की अंतिम घड़ी नहीं बल्कि आगामी यात्रा की शुरुआत है। इसीलिए मैने अपना जन्मदिन श्मशान में मनाने का फैसला किया।'
लालजी टंडन का एक जन्मदिन अपने पीछे ऐसी कड़वी यादें छोड़ गया जिसके बाद उन्होंने कभी अपना जन्मदिन न मनाने का फैसला कर लिया. ये बात साल 2004 के लोकसभा चुनाव के बीच की है। टंडन के जन्मदिन पर कुछ समर्थकों ने गरीब महिलाओं को साड़ियां देने का कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें जुटी भारी भीड़ में भगदड़ मच गई और कुछ महिलाओं की मृत्यु हो गई। इस पर अटल बिहारी वाजपेयी की नाराजगी का सामना भी टंडन को करना पड़ा। उसी के बाद से टंडन ने कभी अपना जन्मदिन न मनाने का संकल्प कर लिया।
व्यापारी होने के बावजूद वह सियासी, सांस्कृतिक, सामाजिक व साहित्यक सरोकारों में सक्रिय रहे। नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी ही नहीं डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे खांटी समाजवादी के भी प्रिय रहे। पं. दीनदयाल उपाध्याय और भाऊराव देवरस के सानिध्य का तो सौभाग्य टंडन को मिला ही। सुचेता कृपलानी, जेवी कृपलानी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन सियासी शख्सियतों के साथ अमृतलाल नागर, श्री नारायण चतुर्वेदी, भगवतीचरण वर्मा और यशपाल जैसी साहित्यिक हस्तियों की नजदीकी का लाभ भी उन्हें मिला।
टंडन के रिश्तों के विस्तार में अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लेख किए बिना तो बात पूरी ही नहीं हो सकती। सभासद से राजनीति करने वाले टंडन की अटल जी से मुलाकात 50 के दशक में हुई। उन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी, पं. दीनदयाल उपाध्याय, भाऊराव देवरस और नाना जी देशमुख का केंद्र लखनऊ ही था। पहली मुलाकात के बाद ही उन्होंने खुद को अटल के लिए ही समर्पित कर दिया। यहां तक बाद में टंडन को बिना लिखा-पढ़ी और औपचारिक घोषणा के अटल का अधिकृत प्रतिनिधि माना जाने लगा।