सार

पिछले एक दशक में बीजेपी की ताकत महाराष्ट्र में प्रभावशाली तरीके से बढ़ी है। 2014 के चुनाव में शिवसेना के बिना बीजेपी ने बड़ी कामयाबी हासिल की। हालांकि बाद में दोनों का गठबंधन हुआ, मगर शिवसेना अब तक जूनियर की भूमिका पचा नहीं पाई है। 

मुंबई: विधानसभा चुनाव की घोषणा होने से ठीक पहले मैं महाराष्ट्र में था। यहां तमाम लोगों से हुई बातचीत में मोटे तौर पर दो चीजें नोटिस करने लायक थीं। एक तो ये कि लोकसभा चुनाव से पहले और विधानसभा चुनाव तक भाजपा और शिवसेना ने जिस तरह से विपक्षी नेताओं की धरपकड़ की, लगभग समूचा विपक्ष नेस्तनाबूद है या बिखर गया है। कम से कम काडर के लिहाज से तो कोई वजूद दिख नहीं रहा है। बस एक हद तक शरद पवार की मेहनत अंधेरे में जुगनू की तरह है और विपक्ष का गुब्बारा थोड़ा बहुत फूला नजर आ रहा है।

महाराष्ट्र में जो दूसरी बड़ी चीज नोटिस करने लायक है वह बहुत दिलचस्प है। उसमें शक्ति-सत्ता की लालसा है और भविष्य की राजनीति है। चूंकि विपक्ष असहाय और शून्य है इस वजह से "महायुति" में शामिल बीजेपी और शिवसेना आपस में ही "सत्ता और विपक्ष" का खेल खेल रही हैं। विधानसभा चुनाव में राज्य के तमाम मुद्दों पर न सिर्फ दोनों दलों की राय अलग दिख है बल्कि विरोधी के रूप में एक-दूसरे पर दोनों हमला करने का मौका भी नहीं छोड़ रहे हैं।

सरकार में रहकर सरकार पर सवाल

हाल ही में "आरे मेट्रो शेड" को लेकर जो विवाद दिखा उसके पीछे शिवसेना ही थी। ये सीधे उस सरकार से लड़ाई थी जिसमें शिवसेना भी सहयोगी है। हालांकि शिवसेना के बड़े नेता (उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे) खुलकर देवेंद्र फडणवीस और बीजेपी सरकार की योजना को विकास विरोधी बताते रहे, पर कभी भी आरे विवाद को पार्टी का मुद्दा नहीं कहा। हमेशा जनता का मुद्दा बताया गया।

उद्धव ठाकरे अपनी कुछ जनसभाओं में फडणवीस और मोदी सरकार की किसान कर्जमाफी की योजना पर भी सवाल कर रहे हैं। जबकि विधानसभा चुनाव में बीजेपी इसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर गिना रही है। अयोध्या में राम मंदिर मुद्दे पर भी पीएम नरेंद्र मोदी की चेतावनी के बावजूद हाल की एक जनसभा में उद्धव ने फिर से बयान दे दिया। ये साफ संकेत हैं कि महायुति के अंदर भी सत्ता और विपक्ष की दो धुरियां नजर आ रही हैं।

महायुति में क्यों चल रहा है सत्ता और विपक्ष का खेल?

दरअसल, कभी भाजपा-शिवसेना के गठबंधन में कभी नंबर एक पार्टी अब जूनियर की भूमिका में है। पिछले एक दशक में बीजेपी की ताकत महाराष्ट्र में प्रभावशाली तरीके से बढ़ी है। 2014 के चुनाव में शिवसेना के बिना बीजेपी ने बड़ी कामयाबी हासिल की। हालांकि बाद में दोनों का गठबंधन हुआ, मगर शिवसेना अब तक जूनियर की भूमिका पचा नहीं पाई है। कम संख्याबल की वजह से शिवसेना मुख्यमंत्री पद की दावेदारी गंवा चुकी है।

वैसे 2014 से 2019 तक के अलग-अलग चुनाव में एनसीपी-कांग्रेस के लगातार कमजोर होने का फायदा बीजेपी-शिवसेना और बहुजन विकास आघाड़ी के साथ ओवैसी की एआईएमआईएम को मिला है। मगर इनके कमजोर होने से जितनी ताकत बीजेपी, बहुजन विकास आघाड़ी और एआईएमआईएम की बढ़ी है शिवसेना का कम रहा है। शहरी इलाकों में भाजपा का प्रभाव लगभग डबल हो गया है। जबकि 2017 में जिला परिषद के चुनाव में भी भाजपा ने शिवसेना और एनसीपी से बहुत ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया।

शिवसेना ने राज्य के ग्रामीण इलाकों में एनसीपी के मराठा वोटबैंक में तगड़ी सेंधमारी की। शिवसेना और बीजेपी में एक होड दिख रही है। बीजेपी की कोशिश है कि वो हर हाल में सीनियर का रुतबा बनाए रखे और शिवसेना चाहती है कि वो फिर से अपने पुराने रुतबे को हासिल करे। मगर कैसे?

बीजेपी का विरोध:  क्या है शिवसेना की स्ट्रेटजी

अकेले शरद पवार की मेहनत को छोड़ दें तो बताने की जरूरत नहीं कि राज्य में समूचा विपक्ष जमीन पर घिसटता नजर आ रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में शिवसेना, बीजेपी के विरोधी दल के रूप में मैदान में थी। पार्टी ने बाद में सरकार में शामिल होने के बावजूद अपनी भूमिका नहीं बदली। दरअसल, पिछले कुछ सालों के दौरान ये हमेशा से शिवसेना के प्लान बी की तरह नजर आया है। यानी शिवसेना सरकार में रहते हुए एक "आंतरिक विपक्ष" की छवि गढ़ने में कामयाब रही है। पार्टी ने इसे भुनाया भी है।

एनसीपी का भाजपा विरोधी जो वोटबैंक रहा है वो पिछले कुछ चुनाव में इसी छवि की वजह से शिवसेना के पास आया है। पार्टी अपने आंतरिक विपक्ष के स्वरूप को बरकरार रखना चाहती है। यही वजह है कि सरकार में रहते हुए उसकी नीतियों का विरोध, राममंदिर मुद्दे पर बीजेपी को घेरने या उसे लपकने की कोशिश, अलग चुनावी घोषणापत्र जैसे तमाम संकेत इसी बात को पुख्ता करते दिख रहे हैं।

संकेत तो यही कहते हैं

खुद पार्टी प्रमुख और उनके बेटे आदित्य ठाकरे कई इंटरव्यूज में यह दोहरा चुके हैं कि वो सरकार में जरूर हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार की जनविरोधी नीतियों का भी समर्थन करते हैं। जनता की भावना के खिलाफ जब भी योजनाएं आएंगी पार्टी उसका विरोध करेगी। खोई जमीन हासिल करने के लिए पार्टी ने ब्रह्मास्त्र चलाया। आदित्य के रूप में ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार चुनाव लड़ रहा है।

ठाकरे परिवार के युवा नेता को पार्टी का चेहरा बनाकर एक तरह से शिवसेना ने महाराष्ट्र के अगले दावेदार के रूप में उनका आम आगे बढ़ा दिया है। डिप्टी सीएम जैसा पद लेकर पार्टी फिर से अपना बेस तैयार करेगी। एनसीपी का कमजोर होना और उसके आंतरिक संघर्ष में शिवसेना निश्चित ही जादुई उम्मीद देख रही है।