सार
पिछले साल की अपेक्षा इस बार संक्रमितों की संख्या भी कम हो गई है। लेकिन स्थितियां अचानक से बदली। अप्रैल महीने में महामारी ने हाहाकार मचा दिया। स्थितियां इतनी नाजुक हुईं कि नेशनल इमरजेंसी जैसी स्थिति हो गई। दरअसल, दिल्ली में ऑक्सीजन की कमी से शुरू हुई मौतों ने एक ऐसा माहौल बना दिया कि देश में कोविड को लेकर फैक्ट्स और सारे तर्क बेमानी हो गए। ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस‘ में लिखे अपने काॅलम में एस.गुरुमूर्ति ने बताया है कि ऑक्सीजन की कमी से दिल्ली में हुई मौतों से ऐसा माहौल बना कि फैक्ट्स पर बात नहीं हुई और कोरोना को लेकर लोगों में गलत फैक्ट्स प्रसारित हुए और इसी आधार पर धारणाएं बनती गईं। गुरुमूर्ति ने अपने काॅलम में एक-एक प्वाइंट्स को विस्तृत तरीके से समझाया है।
नई दिल्ली। देश में कोरोना संक्रमण की स्थितियों की समीक्षा करते हुए करीब दो महीने पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ.हर्षवर्धन ने कहा था कि भारत ने कोविड के ग्राफ को नियंत्रित कर लिया है। 15 फरवरी को उन्होंने बताया था कि 146 जिले ऐसे हैं जहां एक भी कोरोना के केस रिपोर्ट नहीं हुए। पिछले साल की अपेक्षा इस बार संक्रमितों की संख्या भी कम हो गई है।
लेकिन स्थितियां अचानक से बदली। अप्रैल महीने में महामारी ने हाहाकार मचा दिया। स्थितियां इतनी नाजुक हुईं कि नेशनल इमरजेंसी जैसी स्थिति हो गई। दरअसल, दिल्ली में ऑक्सीजन की कमी से शुरू हुई मौतों ने एक ऐसा माहौल बना दिया कि देश में कोविड को लेकर फैक्ट्स और सारे तर्क बेमानी हो गए। ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस‘ में लिखे अपने काॅलम में एस.गुरुमूर्ति ने बताया है कि ऑक्सीजन की कमी से दिल्ली में हुई मौतों से ऐसा माहौल बना कि फैक्ट्स पर बात नहीं हुई और कोरोना को लेकर लोगों में गलत फैक्ट्स प्रसारित हुए और इसी आधार पर धारणाएं बनती गईं। गुरुमूर्ति ने अपने काॅलम में एक-एक प्वाइंट्स को विस्तृत तरीके से समझाया है।
मुनाफाखोर अस्पतालों ने क्यों ऑक्सीजन प्लांट नहीं लगाया
ऑक्सीजन की कमी से जो मौतें हुई हैं, वह सबसे पहले दिल्ली के काॅरपोरेट अस्पतालों में रिपोर्ट की गई है। पिछले साल भी इन अस्पतालों ने काफी अधिक मुनाफा कमाया और इस साल भी कमा रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार अगर किसी को कोरोना हो गया तो दिल्ली के प्राइवेट अस्पतालों ने प्रतिदिन 25 हजार रुपये से लेकर 12 लाख रुपये प्रतिदिन के रेट से कम से कम दो हफ्ते तक मरीज से चार्ज किया। इसके अलावा इन्होंने पीपीई किट, दवाइयां व अन्य इक्वीपमेंट्स के नाम पर लाखों रुपये चार्ज किए। इसके अलावा होम ट्रीटमेंट के नाम पर 5700 से 21900 रुपये प्रतिदिन प्लस विभिन्न टेस्ट्स का चार्ज अलग से लिया।
लेकिन इस लूट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई। रिट याचिका दाखिल होते ही एसोसिएशन आफ हेल्क केयर प्रोवाइडर्स ने सेल्फ रेगुलेशन से फीस तय करने की बात कही। लेकिन क्या आप जानते हैं कि फीस कितनी तय की गई। जनरल वार्ड का प्रतिदिन का रेट 15 हजार रुपये और पांच हजार ऑक्सीजन के लिए अलग से। आईसीयू 25 हजार प्रतिदिन और दस हजार वेंटीलेटर के लिए अलग से।
हेराल्ड के अनुसार, ‘फिक्की का रेट तो काफी अधिक रहा। 17 हजार से 45 हजार रुपये प्रतिदिन। अस्पतालों ने 375-500 रुपये की पीपीई किट खरीदी और बेचा 10 से 12 गुना अधिक कीमत पर। चेन्नई और मुंबई में भी इसी तरह की लूट मची थी।‘
अब सवाल उठता है कि ऑक्सीजन के नाम पर मरीजों से भारी कीमत लेने वाले इन अस्पतालों ने आखिर अपना ऑक्सीजन प्लांट क्यों नहीं स्थापित किया।
ऑक्सीजन प्रोडक्शन निजी हाथों में, इसको सरकार रेगुलेट नहीं करती
एक रिपोर्ट के अनुसार ऑक्सीजन का प्रोडक्शन, व्यापार, भंडारण और इस्तेमाल...सब प्राइवेटाइज्ड है। मेडिकल ऑक्सीजन का व्यापार देश में कंट्रोल या रेगुलेट नहीं किया जाता है। हालांकि, इसकी कीमतें नेशनल फार्मा प्राइसिंग अथारिटी, एनपीपीए- जो केमिकल एंड फर्टिलाइजर मिनिस्ट्री की एक स्वतंत्र संस्था द्वारा तय की जाती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि इन अस्पतालों ने इमरजेंसी को देखते हुए कोई प्लान पहले क्यों नहीं बनाया। पहले से ही इनको ऑक्सीजन मैन्युफैक्चरर से बात करनी चाहिए थी, एक एस्टीमेट बनाकर पहले से आर्डर देना चाहिए था ताकि पहले से तैयारी रहती। लेकिन किसी भी अस्पताल ने मुनाफा की चकाचैंध में ऐसा नहीं किया।
ऑक्सीजन की कमी नहीं
रिपोर्ट के अनुसार ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है। हम 1,00,000 टन ऑक्सीजन प्रतिदिन प्रोड्यूस करते हैं। अकेले गुजरात की एक कंपनी इसका पांचवां हिस्सा बनाती है। हालांकि, यह सच है कि ऑक्सीजन का भंडारण काफी महंगा होता है। जिस ट्रक से लिक्विड ऑक्सीजन का ट्रांसपोर्ट होता है उसकी कीमत 45 लाख रुपये है। 300 रुपये का ऑक्सीजन रखने के लिए दस हजार रुपये का सिलेंडर आता है। ऑक्सीजन की सप्लाई, भंडारण सामान्य दिनों में भी बहुत बड़ी समस्या है। इसके लिए पहले से प्लांनिग होना चाहिए था न कि मौतों का सिलसिला शुरू होने के बाद इसको मंगाने की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए।
मुनाफाखोर जब फेल हुए तो आरोप दूसरे पर लगाने लगे
कोविड की पहली लहर के बाद दिल्ली के अस्पतालों को अपना स्वयं का ऑक्सीजन प्लांट लगाना चाहिए था। प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार सामान्य दिनों में 240 बेड वाले अस्पताल जिसमें 40 बेड का आईसीयू बेड हो वह पांच लाख रुपये मंथली का ऑक्सीजन खर्च करता है। एक पीएसए ऑक्सीजन प्लांट को लगाने में 50 लाख रुपये खर्च आता है। कोई भी अस्पताल इस कास्ट को 18 महीने में रिकवर कर सकता है। दिल्ली का हर अस्पताल इसको अफोर्ड कर सकता है। लेकिन अपना कीमती जगह इसके लिए देने की बजाय अस्पताल हजारों किलोमीटर दूर से ऑक्सीजन मंगाने पर ही विश्वास करते हैं। पिछले साल ही देश के तीन एक्सपर्ट्स चेरिस पाल, जान पाल और अखिल बाबू की एक रिपोर्ट इंडियन जर्नल आफ रेस्पीरेअरी केयर में छपी थी। इसमें आगाह किया गया था कि सभी अस्पताल कुछ प्लांट्स पर ही निर्भर हैं और दूरी इतनी है कि इमरजेंसी में हाहाकार मच सकता है। अगर दिल्ली के संदर्भ में बात करें तो उनकी यह रिपोर्ट बिल्कुल सही साबित हुई। दिल्ली के अस्पतालों ने ऐसा कुछ नहीं किया जो पहले से प्लान्ड वे में किया जाना चाहिए था। और जब महामारी में वे फेल हुए तो कोर्ट जाकर लोगों की जिंदगियों को बचाने के लिए संविधान की दुहाई देने लगे।
राज्य भी ऑक्सीजन प्लांट लगाने में फेल हुई
वर्तमान संकट के इतर कुछ और तथ्य हैं जो जानने और समझने लायक है। मोदी सरकार ने दो सौ करोड़ की लागत से 162 पीएसए प्लांट की मंजूरी दी थी। इससे 80500 लीटर ऑक्सीजन प्रति मिनट बनाया जाता। लेकिन केवल 33 का ही इंस्टालेशन हो सका। आखिर कौन जिम्मेदारी लेगा इसकी।
दूसरी लहर में कोविड पहले वाले जैसा नहीं
एक फैक्ट यह भी है कि वर्तमान की कोविड सूनामी पिछले वाले कोविड से अलग है। इस बार मार्च से प्रारंभ हुआ कोविड अचानक से अप्रैल में जिस तरह पीक पर पहुंचने लगा वह पुराने वाले वायरस की वजह से नहीं बल्कि नए म्यूटेट की वजह से है। बिहार में पिछले सात सप्ताह के भीतर 522 गुना तेजी से फैला, जबकि यूपी में 399 गुना, आंध्र में 186 गुना, दिल्ली और झारखं डमें 150 गुना तेजी से यह वायरस फैल रहा। इसी तरह पश्चिम बंगाल में 142 गुना और राजस्थान में 123 गुना तेजी से कोविड संक्रमण फैल रहा।
सबको साथ आना होगा
कोविड सूनामी से मुकाबला करने के लिए सबको साथ आना होगा। मिलकर, एक दूसरे की जिम्मेदारी व जवाबदेही तय करके इसको नियंत्रित किया जा सकता है। वैक्सीनेशन जब शुरू हुआ तो विपक्ष ने एक ही सुर में इसकी खिलाफत शुरू कर दी। इसके बारे में दुष्प्रचार किया। इसका नतीजा यह हुआ कि लोग वैक्सीनेशन से घबराने लगे, संकोच करने लगे। इस वजह से हम कई महीने तक वैक्सीनेशन में तेजी नहीं ला सके।
(एस.गुरुमूर्ति का यह लेख सबसे पहले न्यू इंडियन एक्सप्रेस में 27 अप्रैल को प्रकाशित हुआ था।)
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