सार

राजेश कुमार...सुनने में तो यह एक साधारण नाम है। लेकिन उन मां-बाप के लिए भगवान से कम नहीं है, जो गरीबी के चलते अपने बच्चों को स्कूल नहीं पहुंचा पाते। राजेश कुमार शर्मा देश की राजधानी दिल्ली में गरीब बच्चों को पिछले 14 साल से फ्री में शिक्षा दे रहे हैं। राजेश के स्कूल में ना तो कोई छत है और ना ही कोई दीवार।

नई दिल्ली. राजेश कुमार...सुनने में तो यह एक साधारण नाम है। लेकिन उन मां-बाप के लिए भगवान से कम नहीं है, जो गरीबी के चलते अपने बच्चों को स्कूल नहीं पहुंचा पाते। राजेश कुमार शर्मा देश की राजधानी दिल्ली में गरीब बच्चों को पिछले 14 साल से फ्री में शिक्षा दे रहे हैं। राजेश के स्कूल में ना तो कोई छत है और ना ही कोई दीवार। पुल (ब्रिज) के नीचे चलने वाला उनका स्कूल राजधानी की गलियों में किसी दुकान की ही तरह है। 

आज 5 सितंबर यानी विश्व शिक्षक दिवस है। एक समाज और देश के अच्छे भविष्य में शिक्षक का विशेष योगदान होता है। कोरोना के चलते देशभर में स्कूल कॉलेज बंद हैं। लेकिन जल्द ही सरकार ने स्कूल, कॉलेज खोलने का फैसला लिया है। कोरोना काल का बच्चों के भविष्य पर फर्क ना पड़े, इसके लिए शिक्षकों की भूमिका अब काफी अहम है। हम शिक्षक दिवस के मौके पर शिक्षक राजेश कुमार शर्मा के संघर्ष की कहानी बता रहे हैं, जो खुद गरीबी के चलते नहीं पढ़ सके। लेकिन आज वे गरीब और स्कूल ना पाने में जाने में सक्षम बच्चों के सपने पूरे कर रहे हैं। हाल ही में यूनेस्को ने राजेश कुमार की तारीफ भी की थी।


खुद नहीं पढ़ पाए तो गरीबों को पढ़ाने का किया फैसला

स्कूल में ना टेबल और ना कुर्सी

यमुना नदी के किनारे ब्रिज के 6 पिलरों के नीचे बने इस स्कूल में ना तो टेबल है और ना ही कोई कुर्सी। बावजूद इसके यहां 200 से ज्यादा बच्चे पढ़ने आते हैं, वह भी सिर्फ राजेश कुमार के जज्बे और गरीबों तक शिक्षा पहुंचाने के जुनून के चलते। यूनेस्को ने राजेश कुमार शर्मा की संघर्ष की यह कहानी शेयर की है। राजेश कुमार 14 साल में सैकड़ों बच्चों को फ्री शिक्षा दे चुके हैं। 'फ्री स्कूल अंडर द ब्रिज' नाम से चलने वाले किसी भी छात्र से कोई पैसा नहीं लिया जाता। 


ना बेंच ना कुर्सी, नीचे बैठक शिक्षा लेते हैं बच्चे

संघर्ष से भरी है राजेश कुमार की जिंदगी 

उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाके से आने वाले राजेश कुमार के गरीब परिवार से आते हैं। उनके परिवार में उन्हें मिलाकर 9 बच्चे थे। कुमार का गरीबी के चलते सपना अधूरा रह गया। वे बताते हैं कि उन्हें गांव 7 किमी दूर साइकिल से स्कूल जाते है। इस कारण उनका विज्ञान का क्लास छूट जाता था। इसलिए उनके हाईस्कूल में इस विषय में कम नंबर आए और वे इंजीनियरिंग में एडमिशन नहीं ले पाए। लेकिन उन्होंने किसी तरह से पैसे इकट्ठे करके यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। वे 40 किमी दूर बस से या साइकिल से कॉलेज जाते थे। लेकिन एक साल बाद परिवारिक समस्या के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। 

जब कुमार 20 साल के हुए तो वे अपने भाई के साथ दिल्ली आ गए। यहां  फल बेचने लगे। कभी-कभी मजदूरी का काम भी कर लेते थे। इन सब से उन्हें थोड़े बहुत पैसे मिल जाते थे। 

ऐसा किया पढ़ाना शुरू
एक दिन उन्होंने कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरों के बच्चों को मलबे में खेलता देखा, इनमें से ज्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। पहले उन्होंने इन बच्चों को टॉफी और कपड़े दिए। इसके बाद कुमार ने इन बच्चों की आर्थिक मदद भी की। 2006 में वे पेड़ के नीचे बैठकर रोजाना दो बच्चों का होमवर्क कराने में मदद करने लगे। इनमें से एक बच्चा आज यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग कर रहा है। 


ब्रिज के नीचे ही खोल लिया स्कूल

चार साल बाद 2010 में उन्होंने पास में बने एक नए ब्रिज के नीचे स्कूल खोल लिया। अब उनके स्कूल में रोजाना 200 से ज्यादा बच्चे पढ़ने आते हैं। बच्चों को दो ग्रुप में बांटा गया है। लड़के सुबह पढ़ने आते हैं और लड़कियां दोपहर में। वे सभी को 2-2 घंटे पढ़ाते हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे स्थानीय स्कूलों में पढ़ते हैं। यहां वे शैक्षिक मदद के लिए आते हैं। शर्मा बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाने में भी मदद करते हैं। 


बच्चों को पढ़ाते राजेश कुमार

नकद में डोनेशन नहीं लेते कुमार

कुमार बच्चों को फ्री में शिक्षा देते हैं। इसमें वे अपनी किराने की दुकान से आने वाली आय को खर्च करते हैं। कभी कभार उन्हें डोनेशन भी मिल जाता है। यहां तक कि राजेश ने एनजीओ भी बनाने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, ऐसा सिर्फ पेपर वर्क से बचने के लिए नहीं बल्कि उन्हे डर है कि प्रशासन को कहीं ऐसा ना लगने लगे कि वे एनजीओ के साथ इस जगह पर कब्जा कर लेंगे और इसी के आधार पर इस स्कूल को बंद कर देंगे। लेकिन किसी वैध संस्था के ना होने के चलते उन्हें कई बार उनके नाम पर नकद में डोनेशन मिली, जिसके चलते उन्हें आलोचना भी झेलनी पड़ी। इसके बाद से उन्होंने नकद में डोनेशन लेनी बंद कर दी। अब वे केवल कपड़ों, खाना और किताबों के रूप में डोनेशन लेते हैं। 
 

 

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