सार
हिंदू धर्म में खाने की चीजों को लेकर कईं तरह की मान्यताएं हैं। ऐसी ही एक मान्यता ये भी है कि मसूर की दाल मांसाहार के समान होती है, इसलिए ब्राह्मण इसे नहीं खाते। जानें इस मान्यता से जुड़ा कारण।
हिंदू धर्म में भोजन के अंतर्गत कई चीजें मना की गई हैं जैसे लहसुन-प्याज आदि, क्योंकि इन्हें तामसिक यानी मांसाहार के समान माना गया है। विशेष रूप से साधु-संत और ब्राह्मण इन चीजों को नहीं खाते। ऐसी ही एक चीज है मसूर की दाल। सुनने में ये बात अजीब लगे लेकिन ये सही है। जो साधु-संत वैष्णव पद्धति का पालन करते हैं वे भूलकर भी कभी मसूर की दाल नहीं खाते। मसूर की दाल को मांसाहार के समान क्यों मानते हैं, इससे जुड़े कईं कारण हैं। उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. नलिन शर्मा से जानिए इस मान्यता से जुड़ी खास बातें…
राहु के रक्त से उत्पन्न हुई है मसूर
उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. नलिन शर्मा के अनुसार, ऐसी मान्यता है कि जब भगवान विष्णु ने स्वरभानु नाम के दैत्य का मस्तक काटा तो वह मरा नहीं बल्कि दो हिस्सों में बंट गया। उसका सिर राहु कहलाया और धड़ केतु। मस्तक कटने से जो रक्त गिरा, उसी से मसूर की दाल उत्पन्न हुई, ऐसा माना जाता है। यही कारण है साधु-संत और वैष्णव पद्धति को मानने वाले मसूर की दाल को मांसाहार के रूप में देखते हैं और भूलकर भी इसे नहीं खाते।
एक कारण ये भी
ज्योतिषाचार्य पं. शर्मा के अनुसार, मसूर की दाल खाने से मन में उग्रता का भाव आता है जिसके कारण साधु-संत व ब्राह्मण इसे खाने से परहेज करते हैं। मसूर की दाल काम शक्ति को प्रोत्साहित करती है साथ ही क्रोध को भी बढ़ाती है। ये सभी चीजें साधु-संतों और ब्राह्मण के लिए ठीक नहीं होती इसलिए प्राचीन समय से ही हमारे विद्वानों ने मसूर की दाल खाने पर पाबंदी लगाई हुई है।
तामसिक पूजा में होता है उपयोग
मसूर की दाल और इससे बने व्यंजनों को तामसिक माना जाता है। साथ ही साथ इसका उपयोग तंत्र-मंत्र के उपायों में भी किया जाता है। इसके पीछे भी यही कारण है कि जहां मूल रूप से मांसाहार का उपयोग नहीं किया जा सकता वहीं इस दाल और इससे बने व्यंजनों का का उपयोग मांसाहर के रूप में किया जाता है।
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इस आर्टिकल में जो भी जानकारी दी गई है, वो ज्योतिषियों, पंचांग, धर्म ग्रंथों और मान्यताओं पर आधारित हैं। इन जानकारियों को आप तक पहुंचाने का हम सिर्फ एक माध्यम हैं। यूजर्स से निवेदन है कि वो इन जानकारियों को सिर्फ सूचना ही मानें।