सार
श्रीकृष्ण ने आदेश देकर गायों से उसका वध कराया था। इसी को लेकर बछड़े को जन्म देने वाली गाय और नर सूअर के बीच लड़ाई की यह प्राचीन परंपरा अभी तक जीवंत है। सूअर के मरने के बाद ही यह आयोजन खत्म होता है। पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता की बयार के बीच ऐसे आयोजन जीवंत भारतीय संस्कृति के उजले पक्ष का परिचायक है।
कानपुर (Uttar Pradesh) । दीपावली के दूसरे दिन मतलब आज गोवर्धन पूजा की जा रही है। ये पूजा कई स्थानों पर अनूठे तरीके से की जा रही है। इनमें घाटमपुर भी शामिल हैं। जहां गाय के पैरों तले सूअर को रौंदा जाता है। यह सिलसिला तबतक जारी रहता है, जबतक सूअर की मौत नहीं हो जाती है। इस खेल के प्रारंभ से अंत तक युवा और बच्चों को शोर रहता है और फिर वो ग्वाल बाले बनकर दिवारी नृत्य करके खुशियां मनाते हैं।
इन गांवों में निभाई जा रही ये परंपरा
बताते चले कि 20 से अधिक गांवों में बीते कई दशकों से इस परंपरा का निर्वहन हो रहा है। जहांगीराबाद, दुरौली, बिरहर, शाहपुर के अलावा यमुना तटवर्ती क्षेत्र के करीब दो दर्जन गांवों में गोवर्धन पूजा व भैया दूज के दिन मेलों में गाय-सूअर की लड़ाई का आयोजन होता है। इसे देखने के लिए पड़ोस के हमीरपुर व फतेहपुर जिले के गांवों के लोग बड़ी संख्या में आते हैं। हालांकि पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव तले कई गांवों में यह परंपरा अब खात्मे की ओर है।
ऐसे मनाई जाती है परंपरा
गोवर्धन पूजा के दिन आसुरी शक्ति के प्रतीक सूअर को सजी-धजी गाय पैरों तले रौंदती है। आयोजन के दौरान ग्वालों का रूप धरे युवा ढोल की थाप उछल-उछल कर दिवारी नृत्य करते हैं। गांवों में यह परंपरा सदियों से प्रचलित है। दो दशक पहले तक करीब-करीब हर गांव में रहुनिया (गोचर की भूमि) के नाम से विख्यात मैदान पर लगने वाले मेले में सूअर वध का आयोजन होता था।
ये है मान्यता
श्रीकृष्ण ने आदेश देकर गायों से उसका वध कराया था। इसी को लेकर बछड़े को जन्म देने वाली गाय और नर सूअर के बीच लड़ाई की यह प्राचीन परंपरा अभी तक जीवंत है। सूअर के मरने के बाद ही यह आयोजन खत्म होता है। पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता की बयार के बीच ऐसे आयोजन जीवंत भारतीय संस्कृति के उजले पक्ष का परिचायक है।
(प्रतीकात्मक फोटो)