सिर की पगड़ी से साड़ी तक, जानें लहरिया प्रिंट का पारंपरिक इतिहास
Other Lifestyle Mar 04 2025
Author: Chanchal Thakur Image Credits:Pinterest
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लहरिया प्रिंट का पारंपरिक इतिहास
लहरिया प्रिंट की शुरुआत राजस्थान में हुई थी। इसका नाम "लहर" से लिया गया है, पहले इसे राजपूत और मराठी शासकों की पोशाकों में इस्तेमाल किया जाता था, खासकर पगड़ियों और घाघरा-चोली में।
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लहरिया प्रिंट की शुरुआत कैसे हुई?
यह प्रिंट बांधनी (Tie & Dye) तकनीक का एक खास रूप है, जो 17वीं शताब्दी में राजस्थान में लोकप्रिय हुआ। सावन में इसे शुभ माना जाता है, इसलिए महिलाएं सावन में लहरिया साड़ी पहनती हैं।
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लहरिया प्रिंट कैसे बनाया जाता है?
लहरिया बनाने के लिए रेशम या शिफॉन जैसे हल्के कपड़ों का उपयोग किया जाता है। कपड़े को लंबाई में तिरछी धारियों में मोड़ा और बांधा जाता है, जिससे यह रंगते समय एक खास पैटर्न बनाता है।
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लहरिया प्रिंट के पारंपरिक रंग
पहले इसे प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता था, लेकिन अब सिंथेटिक रंगों का भी उपयोग होता है। इसके प्रमुख रंग पीला, लाल, हरा, नीला और गुलाबी होते हैं, जो सावन और तीज पर शुभ माना जाता है।
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लहरिया प्रिंट की खास विशेषताएं
लहरिया प्रिंट की धीरे-धीरे खुलती हुई धारियां, इसे एक कलात्मक और अनोखा पैटर्न बनाती हैं। यह विशेष रूप से राजस्थानी साड़ियों, दुपट्टों, पगड़ियों और लहंगों में इस्तेमाल होता है।
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आधुनिक दौर में लहरिया प्रिंट का प्रभाव
अब लहरिया प्रिंट केवल पारंपरिक परिधानों तक सीमित नहीं है, बल्कि दुपट्टा से लेकर वेस्टर्न वियर तक, बॉलीवुड और फैशन इंडस्ट्री में भी लहरिया प्रिंट का क्रेज बढ़ता जा रहा है