महाभारत के अनुसार,अपने पिता परीक्षित की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए राजा जनमेजय ने नागदाह यज्ञ करवाया था, जिसमें संसार के बड़े-बड़े सर्प भस्म हो गए थे, ये बात तो सभी जानते हैं, लेकिन उस यज्ञ को किसने रुकवाया था और क्यों? ये बहुत कम लोग जानते हैं।
उज्जैन. महाभारत के अनुसार, जिन ऋषि ने जनमेजय का नागदाह यज्ञ रुकवाया, उनके बारे में कई धर्म ग्रंथों में भी बताया गया है। महाभारत के प्रथम अध्याय में यह भी लिखा है कि इन ऋषि का नाम लेने से सांप भाग जाते हैं और घर के बाहर उनका नाम लिख देने से सर्प घर में प्रवेश नहीं करते। इस बार नागपंचमी (Nagpanchami 2022) का पर्व 2 अगस्त, मंगलवार को है। इस मौके पर हम आपको नागदाह यज्ञ की पूरी कथा और जिसने उस यज्ञ को रुकवाया, उन ऋषि के बारे में बता रहे हैं…
राजा जनमेजय ने क्यों किया नागदाह यज्ञ?
महाभारत के अनुसार, अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जनमेजय राजा बने। जब राजा जनमेजय को यह पता चला कि उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग के काटने से हुई है तो वे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने नागदाह यज्ञ करवाया। इस यज्ञ में बड़े-छोटे, वृद्ध, युवा सर्प आ-आकर गिरने लगे। मृत्यु के भय से तक्षक नाग देवराज इंद्र के यहां जाकर छिप गया।
किसने रुकवाया था नागदाह यज्ञ?
सर्पों की बहन जरत्कारू जिन्हें मनसा माता भी कहा जाता है, के पुत्र आस्तिक मुनि को जब यह नागदाह यज्ञ के बारे में पता चला तो वे वहां पर आए और यज्ञ की स्तुति करने लगे। यह देखकर जनमेजय ने उन्हें वरदान देने के लिए बुलाया। आस्तिक मुनि ने राजा जनमेजय से सर्प यज्ञ बंद करने का आग्रह किया। पहले तो राजा जनमेजय ने इंकार किया लेकिन बाद में ऋषियों द्वारा समझाने पर वे मान गए। इस प्रकार आस्तिक मुनि ने धर्मात्मा सर्पों को भस्म होने से बचा लिया।
इसलिए इनका नाम लेने पर नहीं काटते सर्प
सर्प यज्ञ रुकवाने के बाद जब आस्तिक मुनि अपने मामा और नागों के राजा वासुकि के पास गए तो उस समय उनके पास हजारों सर्प थे। हर कोई आस्तिक मुनि का गुणगान कर रहा था। सर्पों के राजा वासुकि ने प्रसन्न होकर आस्तिक मुनि से वरदान मांगने को कहा। तब आस्तिक मुनि ने कहा कि “जो भी व्यक्ति दिन या रात में मेरा नाम ले, उसे किसी तरह का कोई सर्प भय नहीं रहना चाहिए।” सर्पों के राजा वासुकि ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
ये है आस्तिक मुनि की मंत्र
सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते।
शतधा भिद्यते मूर्ध्नि शिंशवृक्षफलं यथा।।
अर्थ- हे महाविषधर सर्प, तुम चले जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। जनमेजय के यज्ञ की समाप्ति में आस्तिक ने जो कुछ कहा था, उसका स्मरण करो। जो सर्प आस्तिक के वचन की शपथ सुनकर भी नहीं लौटेगा, उसका फन शीशम के फल के समान सैकड़ों टुकड़े हो जायगा।
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