इस बार राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए आरजेडी (RJD) भी सोशल इंजीनियरिंग में फेरबदल की कोशिश करता दिख रहा है। इसके तहत पार्टी ज्यादा से ज्यादा सवर्ण उम्मीदवारों पर दांव लगाने की तैयारी में है।
पटना। बिहार के विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections) में जीत हासिल करने के लिए सभी पार्टियों को जातीय रणनीति का सहारा लेना पड़ रहा है। गठबंधन और उम्मीदवारों का चयन इसी फॉर्मूले को ध्यान में रखकर किया जाता है। इस बार राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए आरजेडी (RJD) भी सोशल इंजीनियरिंग (Social Engineering) में फेरबदल की कोशिश करता दिख रहा है। इसके तहत पार्टी ज्यादा से ज्यादा सवर्ण उम्मीदवारों पर दांव लगाने की तैयारी में है।
चर्चाओं की माने तो आरजेडी इस बार राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से करीब दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर सवर्ण उम्मीदवारों को उतारने का मन बना लिया है। ये स्ट्रेटजी पिछले चुनाव से अलग है। 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने जेडीयू के साथ चुनाव लड़ा था और कुल पांच सवर्ण उम्मीदवार उतारे थे। इंसमें से तीन राजपूत, एक ब्राह्मण और एक कायस्थ समुदाय से था।
क्यों बदल रहे स्ट्रेटजी?
दरअसल, राज्य में सवर्ण मतदाताओं की अच्छी-ख़ासी आबादी है। पिछले काफी समय तक लालू यादव (Lalu Yadav) और फिर तेजस्वी यादव (Tejaswi Yadav) के नेतृत्व में आरजेडी ने मुस्लिम-यादव की रणनीति के तहत काम करती थी। साथ ही पिछड़ा और अति पिछड़ा वोटो पर भी ध्यान था। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में पिछड़ा, अति पिछड़ा, और महादलित समुदाय का वोट जेडीयू, एलजेपी, वीआईपी, आरएलएसपी और बीजेपी में बंटा हैं। मुस्लिमों का वोट भी ओवैसी की पार्टी AIMIM में जाता दिख रहा है। जबकि सवर्ण वोट एकमुश्त बीजेपी (BJP) के पाले में गए हैं। यादव मतों में भी बीजेपी और जेडीयू ने काफी हद तक सेंध लगाई है।
सवर्णों के वोटबैंक से नुकसान की भरपाई
चूंकि आरजेडी का मूल वोट अब काफी बिखर चुका है। ऐसे में पार्टी की कोशिश है कि सवर्णों को प्रतिनिधित्व देकर उनका वोट साथ जोड़ा जाए जो नुकसान की भरपाई करेगा। दूसरी वजह यह भी है कि सवर्णों की वोटिंग का ट्रेंड भी बदला है। अब सवर्ण किसी पार्टी खासतौर से बीजेपी को एकमुश्त वोट करते हैं जैसा कभी महादलित, पिछड़े और अति पिछड़े आरजेडी-कांग्रेस और जेडीयू के लिए करते थे।
पिछले छह साल में अलग-अलग राज्यों में सवर्णों के एकमुश्त वोट और दूसरे समाज को प्रतिनिधित्व देकर बीजेपी ने राजनीतिक सफलता के नए आयाम गढ़े हैं। ऐसे वोटिंग ट्रेंड के बाद देखने में यह भी आया कि सवर्णों के आरक्षण देने जैसे मुद्दों पर दलित पिछड़ा वोट बैंक पर राजनीति करने वाली पार्टियां भी घोषणाएं करने लगीं।
प्रतिनिधित्व के सहारे भरोसा जीतने की कोशिश
आरजेडी की राजनीति का आधार सवर्ण समाज के खिलाफ ही तैयार हुआ था। लेकिन पार्टी के पास अब वो वोटबैंक भीपूरी तरह से साथ नहीं रहा जो सवर्णों की खिलाफत में उसके साथ आया था। ऐसी हालत में अब आरजेडी (RJD) की कोशिश है कि वक्त के साथ सोशल इंजीनियरिंग में फेरबदल किया जाए। इसकी वजह यह है कि पिछले चुनाव में सवर्ण उम्मीदवारों की जीत का बेहतर प्रतिशत भी था। पार्टी ने पांच उम्मीदवार उतारे थे और तीन पर जीत हासिल की थी। हालांकि बिहार में भूमिहार मत भी कई जगह निर्णायक हैं, मगर इस समाज को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया था। बाद में भूमिहार समाज की नाराजगी के बाद अमरेंद्र धारी सिंह को राज्यसभा में भेजा गया था। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार का सवर्ण मतदाता आरजेडी के साथ किस तरह और कितना जुड़ता है।