World TB Day 2022: देश में हैं 26 लाख से ज्यादा टीबी मरीज, जानिए क्यों फैलती है बीमारी और क्या होते हैं परिणाम

World TB Day 2022: सिर्फ भारत में ही नहीं, चीन, युगांडा, फिलीपींस, इंडोनेशिया और दुनिया के अन्य हिस्सों में भी टीबी के मरीज मौजूद हैं। दुनिया में 10 मिलियन केसों में दो तिहाई केस एशिया और उप सहारा इलाकों में मिलते हैं।

World TB Day 2022: भारत में 26 लाख से ज्यादा टीबी केस हैं। जो भी इस बीमारी के संपर्क में आता है उसका अनुभव काफी खराब होता है। लोग उससे अलग होना शुरू हो जाते हैं। उस मरीज को एक तरह से बहिष्कृत कर दिया जाता है। टीबी मौजूदा समय में दुनियाभर में एक बड़ी समस्या है। समय पर उपचार ना होने की वजह से इसमें इजाफा होने लगता है, साथ ही घातक परिणाम भी भुगतने पड़ सकते हैं। वर्ल्ड टीबी डे 24 मार्च को होता है। इस मौके पर हम आपको बताएंगे कि आखिर अभी तक यह बीमारी क्यों हैं? यह रोगियों को कैसे प्रभावित करती है? इसे रोकने की आवश्यकता क्यों है?

आखिर टीबी कहां सबसे ज्यादा मौजूद है?
टीबी के कलंक को समझने के लिए, हमें पहले यह समझना होगा कि दुनिया भर में टीबी के लगभग 10 मिलियन मामलों में से 2/3 से अधिक मामले एशिया के विकासशील हिस्सों और उप-सहारा इलाकों में हैं। आर्थिक तंगी, स्वास्थ्य देखभाल की कमी और अपर्याप्त स्वच्छता टीबी ट्रांसमिशन के लिए एक अनुकूल माहौल तैयार करती है। सभी गरीब/विकासशील देशों में नहीं तो अधिकांश में टीबी का कलंक मौजूद है। 2021 की एक स्टडी के अनुसार युगांडा में टीबी के प्रभाव को दिखाया गया है, जिसमें शहरी आबादी के आधे से अधिक लोग टीबी के कलंक का सामना कर रहे थे। वहीं चीन, इंडोनेशिया, फिलीपींस, जाम्बिया, सूडान, इथियोपिया और दुनिया के अन्य विकासशील हिस्सों में भी टीबी के मरीज पाए गए।

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आखिर टीबी की बीमारी अभी तक क्यों मौजूद है?
टीबी से संबंधित कलंक का एक बड़ा हिस्सा एचआईवी और एड्स से जुड़े होने की धारणा से उत्पन्न होता है। दुनिया के कई हिस्सों में, दोनों के लक्षण अक्सर आपस में जुड़े होते हैं और एक दूसरे के लिए भ्रमित होते हैं। वास्तव में, 2019 में, भारत में टीबी के 26 लाख मामलों में से केवल 71,000 मामलों में एचआईवी और टीबी थे। टीबी से पीडि़त लोगों को अक्सर समाज के हाथों भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिनके मानदंडों के कारण उन्हें अवांछनीय माना जाता है।

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टीबी से लोगों में प्रभाव पड़ता है?
टीबी के कलंक के कारण पीडि़त सामाजिक परिणामों से बचने के लिए इलाज से परहेज करता है। वहीं जब पीडि़त लोग इलाज का ऑप्शल चुनते हैं, तब भी उन्हें बहिष्कृत किया जाता है। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं, लखनऊ के एक किसान कमला किशोर को 2012 में टीबी हो गई थी, लेकिन उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। डॉक्टर ने भी उन्हें बीमारी के बारे में बताए बिना इलाज शुरू कर दिया। अंत में जब किशोर को अपनी इस बीमारी के बारे में पता तो गंभीरता के साथ इलाज शुरू किया गया। उसके दोस्तों ने उसका साथ छोड़ दिया।

लेकिन उनका परिवार उनके साथ खड़ा था, और उनका कहना है कि टीबी उनके लिए सबसे अच्छी चीजों में से एक थी। वह अब एक किसान और डॉट्स प्रदाता के रूप में काम करता है, टीबी के साथ दूसरों की मदद करने की कोशिश कर रहा है। डॉट्स का तात्पर्य डायरेक्टली ऑब्जव्र्ड थेरेपी शॉर्टकोर्स से है, जो एक पर्यवेक्षण/सहायता प्रयास है जो टीबी रोगियों को उनकी जरूरत के अनुसार उपचार प्राप्त करने और उन्हें मिलने वाली सहायता प्राप्त करने में सक्षम बनाता है।

24 मार्च को ही क्यों मनाया जाता है वल्र्ड टीबी दिवस
अब सवाल यह है कि आखिर 24 मार्च को ही वल्र्ड टीबी दिवस क्यों मनाया जाता है? वास्तव में 24 मार्च, 1882 को जर्मन फिजिशियन और माइक्रोबायोलॉजिस्ट रॉबर्ट कॉच ने टीबी के बैक्टीरियम का पता लगाया गया था, जीवाणु माइकोबैक्टीरियम ट्युबरक्लोसिस भी कहते हैं। इसी बैक्टीरियम की वजह से टीबी के इलाज में मदद मिली। जिसके लिए रॉबर्ट कॉच को 1905 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था। जिसकी वजह से 24 मार्च को वल्र्ड टीबी दिवस मनाया जाता है।

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