जानिए क्या है दलबदल कानून, जिससे बची है महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की थोड़ी-बहुत 'उम्मीद'

संविधान का अनुच्छेद 102 के तहत किसी विधायक को सदन का सदस्य होने से अयोग्य ठहराया जा सकता है। इस अनुच्छेद का दूसरा भाग संविधान की 10वीं अनुसूची को किसी भी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का अधिकार देता है।

करियर डेस्क : महाराष्ट्र (Maharashtra) की सियासत में जो हाई-वोल्टेड ड्रामा चल रहा है, वह उद्धव सरकार के लिए बड़े संकट से कम नहीं। मंत्री एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) की बगावत से सरकार का गिरना करीब-करीब तय माना जा रहा है। यह विद्रोह सिर्फ सरकार में नहीं बल्कि शिवसेना में भी है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या जितने भी विधायक एकनाथ शिंदे के साथ बागी बने हुए हैं, वे दलबदल कानून के तहत अयोग्य ठहराए जा सकते हैं या फिर यह कानून उन पर लागू ही नहीं होगा। तो समझिए दल-बदल कानून को कि आखिर यह है क्या और किस परिस्थिति में लागू होता है.... 

महाराष्ट्र विधानसभा की स्थिति 
दल-बदल कानून से पहले बाद महाराष्ट्र विधानसभा की स्थिति की। विधानसभा में कुल सदस्यों की संख्या 288 है। शिवसेना के पास 55 विधायक हैं। NCP के पास 54 और कांग्रेस के पास 44 विधायक हैं। तीनों मिलकर महाअघाड़ी सरकार चला रहे हैं लेकिन एकनाथ शिंदे और बाकी विधायकों की बगावत, जिनकी संख्या 50 के करीब बताया जा रहा है, उन विधायकों ने पूरे गणित को ही उलट-पुलट कर रख दिया है। इसीलिए माना जा रहा है कि अब उद्धव सरकार ज्यादा दिन की नहीं बची है।

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क्या है दल-बदल कानून
भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची को दल-बदल विरोधी कानून कहा जाता है। साल 1985 में 52वें संशोधन के साथ इस कानून को संविधान में शामिल किया गया। दल-बदल कानून (Anti-defection law) तब लागू किया जाता है जब निर्वाचित सदस्य पार्टी छोड़ने या पार्टी व्हिप का उल्लंघन करते हैं। ऐसी स्थिति में उनकी सदस्यता रद्द हो जाती है। एक समय ऐसा भी आया जब राजनीतिक फायदे के लिए निर्वाचित सदस्य लगातार बिना सोचे-समझे पार्टी बदलने लगे। इससे अवसरवादिता और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई। जनादेश की भी अनदेखी होने लगी। इसको देखते हुए इस कानून की जरुरत महसूस हुई।

कानून का उल्लंघन करने पर क्या होता है
इस कानून के मुताबिक, कोई भी निर्वाचित सदस्य अगर सदन में पार्टी व्हिप के खिलाफ मतदान करे या फिर अपनी मर्जी से सदस्यता से इस्तीफा दे दे, कोई निर्दलीय चुनाव के बाद किसी पार्टी में शामिल हो जाए या फिर मनोनीत सदस्य कोई पार्टी ज्वॉइन कर ले, ऐसी किसी भी स्थिति में उसकी सदस्यता चली जाएगी। जब 1985 में यह कानून अस्तित्व में आया तो उसके बाद भी दल-बदल पर कोक नहीं लग पाया, ऐसे में साल 2003 में इस कानून में एक बार फिर संशोधन किया गया। जिसके तहत सिर्फ एक सदस्य ही नहीं अगर कई सदस्य सामूहिक रूप से दल-बदल करते हैं तो उसे असंवैधानिक करार दिया जाएगा। इसी संशोधन में धारा 3 को भी समाप्त कर दिया गया, जिसके तहत एक तिहाई पार्टी सदस्यों को लेकर पार्टी बदली जा सकती थी। अब ऐसा करने के लिए दो तिहाई सदस्यों की मंजूरी चाहिए होती है।

दल-बदल कानून कब लागू नहीं होता
जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर किसी दूसरी पार्टी में शामिल हो जाए
जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी किसी दूसरी पार्टी के साथ मिल जाए
अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेता है
जब किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग रहना स्वीकार करते है

कौन दे सकता है दखल
संविधान की 10वीं अनुसूची के 6वें पैराग्राफ में कहा गया है कि दल-बदल का आखिरी फैसला सदन  के अध्यक्ष यानी स्पीकर या फिर चेयरपर्सन का होता है। पैराग्राफ 7 में साफ किया गया है कि कोई भी कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता। लेकिन इस पैराग्राफ (7) को साल 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने असंवैधानिक बताया। सर्वोच्च न्यायालय ने 10वीं अनुसूची को वैध माना लेकिन पैराग्राफ 7 को नहीं।

क्या महाराष्ट्र में आड़े आएगा यह कानून
अब महाराष्ट्र की स्थिति में इस कानून की बात करें तो एकनाथ शिंदे के साथ 50 के करीब विधायक होने की बात सामने आ रही है। जिसमें 35 से ज्यादा शिवसेना के ही विधायक बताए जा रहे हैं। अब चूंकि विधानसभा में शिवसेना के सदस्यों की संख्या 55 है। ऐसे में दो तिहाई सदस्य 36 या 37 होंगे। ऐसी स्थिति में अगर विधानसभा अध्यक्ष के सामने यह साबित कर दिया जाए कि शिवसेना के बागी विधायकों की संख्या 36 है तो उन्हें अलग गुट की मान्यता मिल सकती है।

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