साल 1967 के बाद देश की राजनीति कुछ ठीक नहीं चल रही थी। कांग्रेस में उथल-पुथल मची थी। केंद्र की राजनीति में जो कुछ भी दिखाई दे रहा था, उससे साफ पता चलने लगा था कि इंदिरा गांधी सिंडिकेट के तौर तरीकों से नाखुश थीं। कहा जाता है कि उस वक्त गुजरात में जो भी मुख्यमंत्री बनता, मोरारजी देसाई का करीबी होता था।
करियर डेस्क : महाराष्ट्र में पिछले कुछ दिनों से हाई-वोल्टेड पॉलिटिकल ड्रामा (Maharashtra Political Crisis) चल रहा है। अब गुरुवार यानी 30 जून को उद्धव सरकार का फ्लोर टेस्ट होगा या नहीं अब इस पर असमंजस की स्थिति है। इस बीच शिवसेना की मांग है कि फ्लोर टेस्ट पर रोक लगाई जाए। लेकिन सूबे की सियासत में जो कुछ भी चल रहा है, ऐसे मामलों में कई बार देखा गया है कि गठबंधन की सरकार बहुमत न होने पर गिर गई हैं। 70 और 80 के दशक में इस तरह के कई राजनीतिक उठापटक के दौर आएं। तब कई सरकारें बीच में ही गिर गईं और नई सरकार बनी। ऐसे में चर्चा का विषय हैं कि आखिर उद्धव ठाकरे सरकार का क्या होगा? वहीं दूसरी तरफ यह भी कि आखिर देश में पहली बार किस राज्य में इस तरह का सियासी ड्रामा हुआ था और कहां बहुमत न होने से पहली बार गिर गई थी सरकार? आइए बताते हैं एक-एक जानकारी..
इस राज्य में पहली बार गिरी सरकार
बात गुजरात की सियासत की है। यहां के मुख्यमंत्री हितेंद्र कन्हैयालाल देसाई (Hitendra Kanaiyalal Desai) 90 के दशक में सबसे ज्यादा तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उनकी गिनती पूर्व पीएम मोरारजी देसाई (Morarji Desai) के खास लोगों में होती थी। फिर एक कार्यकाल ऐसा रहा जब उनकी सरकार अल्पमत में आ गई और बहुमत न होने के कारण गिर गई। तब उन पर विधायकों के खरीद-फरोख्त के आरोप लगे थे। हितेंद्र कन्हैयालाल देसाई की सरकार देश में पहली सरकार थी, जो बहुमत नहीं होने से कारण गिर गई थी।
तब क्या हुआ था
सितंबर 1965 की बात है, हितेंद्र कन्हैयालाल देसाई गुजरात के मुख्यमंत्री बने। उनके बागडोर संभालने के दो साल बाद ही कांग्रेस उन्हीं के नेतृत्व में गुजरात के चुनावों में उतरी। चुनाव में अखिल भारतीय कांग्रेस की जीत हुई और 1967 में कन्हैयालाल दूसरी बार चीफ मिनिस्टर बने। यह कार्यकाल उनके लिए कुछ ज्यादा ठीक नहीं गुजरा। इसी कार्यकाल के दौरान कांग्रेस के अंदरखाने उठापटक शुरू हो गया।
इंदिरा गांधी ने बनाई नई पार्टी
उस वक्त देश की सियासत में भी काफी कुछ ठीक नहीं चल रहा था। साल 1969 की बात है। कांग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया लेकिन वे चुनाव हार गए। इस चुनाव में जीत हुई इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के सपोर्ट से खड़े निर्दलीय प्रत्याशी वीवी गिरी की। तब सियासी गलियारों में चर्चा हुई कि कांग्रेस अब टूटने के कगार पर खड़ी है। ऐसे में नवंबर 1969 में एक बड़ा फैसला लिया गया और इंदिरा गांधी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। तब इंदिरा ने कांग्रेस आर के नाम से खुद की नई पार्टी खड़ी कर ली, पुरानी पार्टी का नाम कांग्रेस ओ हुआ।
कांग्रेस टूटी तो असर गुजरात में भी हुआ
जब इंदिरा गांधी ने नई पार्टी बनाई और कांग्रेस दो भागों में टूट गई तो उसका असर गुजरात में भी हुआ। राज्य में भी कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई। लेकिन तत्कालीन सीएम हितेंद्र देसाई ने मोरारजी देसाई की कांग्रेस सिंडिकेट के साथ रहने का फैसला किया और उनकी सरकार चलती रही। सरकार 1971 तक चलती रही। इसके बाद देशभर के राज्यों में दलबदल का खेल शुरू हो गया। बड़ी संख्या में कांग्रेस ओ के नेता कांग्रेस आर, जो कि इंदिरा गांधी की थी, उसमें चले गए। गुजरात में भी बड़ी संख्या में टूट हुई।
हितेंद्र देसाई पर हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप
जब गुजरात में हितेंद्र कन्हैयालाल के विधायक टूटे तो सरकार अल्पमत में आ गई। 168 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के जादुई आंकड़े के लिए 85 सीटों की दरकार थी, जो उनके पास नहीं था। तब उन्होंने सरकार बचाने विपक्षी दल स्वतंत्र पार्टी और कांग्रेस आर के कई विधायकों से संपर्क किया। उस वक्त उन पर विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगे और राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो ने राज्य विधानसभा भंग कर दी। यह पहला मौका भी था कि उस वक्त हए राष्ट्रपति चुनाव में गुजरात का एक भी विधायक भाग नहीं ले पाया। जिसका कनेक्शन महाराष्ट्र से जोड़ा जा रहा है, क्योंकि 18 जुलाई को देश में राष्ट्रपति चुनाव है।
कैसा रहा तीन कार्यकाल
जिस वक्त राजनीति में इनती उथल-पुथल मची थी, उस दौर में हितेंद्र कन्हैयालाल देसाई 1965 से लेकर 1971 के बीच तीन बार मुख्यमंत्री बने। साल 1969 में उन्हीं के कार्यकाल के वक्त गुजरात में सांप्रदायिक दंगें हुए। साल 1971 में जब बहुमत न होने के कारण उनकी सरकार गिरी तो फिर कभी भी वे सियासत में वापस नहीं लौट सके। साल 1993 में 78 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
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आर्ट में ग्रेजुएट हैं महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे, फोटोग्राफी का रखते हैं शौक, दो किताबें भी लिख चुके हैं
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