कंगाली में बिस्किट खा खाकर करता रहा पढ़ाई...पिता की मौत का सदमा सहकर भी IAS बना ये लड़का

नई दिल्ली. भारत में हर साल लाखों की संख्या में कैंडीडेट आईएएस (IAS) की परीक्षा देते हैं। इनमें से बहुत कम ही होते हैं जो कि सेलेक्ट होते हैं। बहुत से बच्चे अफसर बनने के लिए इतने जुनूनी हो जाते हैं कि कई दिनों तक घरों में बंद रहकर सिर्फ पढ़ाई करते हैं। वो खुद को किताबों में झोंक देते हैं। न खाने की सुध रहती है न बाहर की दुनियादारी की। ऐसे ही एक लड़के ने अफसर बनने के अपने सपने में खुद की आहूती दे दी। पिता की मौत के सदमे और खाने में बिस्किटों पर गुजारा कर उसने अफसर बनकर दिखाया। शशांक के पास कोई सुख सुविधा तो छोड़ो खाने को भरपेट खाना तक नहीं था फिर भी वह दिन रात मेहनत करके न सिर्फ अपनी फीस भर रहे थे साथ ही परिवार की जिम्मेदारी भी उठा रहे थे। 

 

आईएएस सक्सेज स्टोरी (IAS Success Story) में हम शशांक मिश्रा के संघर्ष की कहानी सुना रहे हैं। 

 

Asianet News Hindi | Published : May 1, 2020 7:04 AM IST / Updated: May 01 2020, 12:42 PM IST
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कंगाली में बिस्किट खा खाकर करता रहा पढ़ाई...पिता की मौत का सदमा सहकर भी IAS बना ये लड़का

यूपीएससी पास करने का सफर और भी मुश्किल हो जाता है जब आपकी परिस्थितियां विपरीत हों और संसाधनों की कमी हो। शशांक मिश्रा इसकी मिसाल हैं, जिन्होंने अपने समर्पण से साल 2007 में न सिर्फ आईएएस परीक्षा पास की बल्कि टॉप टेन में जगह बनाते हुए 5वीं रैंक भी हासिल की थी। 

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शशांक मिश्रा (Shashank Mishra) मेरठ के रहने वाले हैं। जब वह 12वीं में थे तभी उनके पिता गुजर गए। उनके पिता यूपी के कृषि विभाग में डिप्टी कमिश्नर पद पर कार्यरत थे। 

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पिता के गुज़र जाने के बाद पूरे परिवार को पैसों की काफी परेशानी से गुजरना पड़ा। इस वक्त वे आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। अब पूरे घर की जिम्मेदारी उनके कंधे पर आ गई। घर में मां के अलावा तीन भाई और एक बहन थी, जिसकी जिम्मेदारी भी इन्हीं पर थी।

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आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में शशांक की 137वीं रैंक आई। इसके बाद इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में उन्होंने बीटेक कंप्लीट किया। इसके तुरंत बाद उन्हें एक एमएनसी में नौकरी मिल गई।

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हालांकि, उन्होंने नौकरी छोड़ कर साल 2004 में आईएएस की तैयारी शुरू कर दी लेकिन एक बार फिर पैसों की समस्या उनकी राह में बाधा बनी। 

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इस वजह से दिल्ली की एक कोचिंग में पढ़ाना शुरू कर दिया लेकिन जो पैसे वह कमाते थे वह इतना नहीं होता था कि दिल्ली में किराए पर कमरा ले पाते। 
 

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इसलिए उन्होंने रोज़ाना मेरठ से आना-जाना शुरू कर दिया। आने जाने में जो वक्त लगता था उसे वे पढ़ते हुए बिताते थे। उन्होंने ट्रेन में पढ़ाई करके ही यूपीएससी में सफलता पाई।
 

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यूपीएससी की तैयारी दो साल करने के बाद उन्होंने परीक्षा दी। उन दो सालों में कभी कभी ऐसा भी होता था कि उनके पास पूरा खाना खाने के पैसे नहीं होते थे और वे सिर्फ बिस्किट खाकर रह जाते थे। 

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पहले प्रयास में ही उनकी मेहनत रंग लाई और वे एलाइड सर्विसेज़ के लिए चुन लिए गए लेकिन वे उससे बहुत खुश नहीं थे। उन्होने दुबारा प्रयास किया और 2007 में उनकी 5वीं रैंक आई। वे मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के कलेक्टर बने। 

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शशांक के कड़े संघर्ष और जज्बे की इस कहानी से सैकड़ों छात्रों को हिम्मत मिलती हैं। कैसे उन्होंने घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालते हुए और कमी होते हुए भी अपने लक्षय को पूरा किया। उन्होंने साबित कर दिया किसी चीज को सच्चे दिल से चाहो तो वो आपको जरूर मिलती है। 

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