कोरोना: नहीं दिखते अब मौत पर रोने वाले..अकेली जल रहीं चिताएं...कैसे विसर्जित हों अस्थियां

Published : Apr 08, 2020, 09:53 AM IST

जयपुर, राजस्थान. कोरोना संक्रमण के डर ने मानों दुनिया की पूरी गति और मति ही बदल दी है। सबकुछ ठहर गया है। क्या जीवनशैली..क्या खान-पान..बल्कि खुशी और मौत से जुड़ीं परंपराओं पर भी गहरा असर पड़ा है। कहते हैं कि किसी की खुशी में भले शामिल न हो, लेकिन दु:खों में शरीक होना चाहिए। लेकिन कोरोना के डर से क्या खुशी और क्या गम..सबने यहां-वहां जाना बंद कर दिया है। श्मशान में चिताएं अकेली जल रही हैं। दो-चार लोगों से ज्यादा वहां कोई नहीं पहुंच रहा। शोकसभाएं भी नहीं हो रही हैं। यही नहीं, मृतक की अस्थियां भी विसर्जन के लिए रखी देखी जा सकती हैं। लॉक डाउन के चलते गाड़ियां पूरी तरह बंद होने से लोग अस्थियां विसर्जन करने नहीं जा पा रहे हैं। लोग शोक संदेश भेजते समय भी उसमें यह लिखने लगे हैं कि आप घर पर ही मृत आत्मा का शांति के लिए प्रार्थना करें। यह तस्वीर राजस्थान के बूंदी की है। ये अस्थियां विसर्जन को रखी हैं।

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कोरोना: नहीं दिखते अब मौत पर रोने वाले..अकेली जल रहीं चिताएं...कैसे विसर्जित हों अस्थियां
बेशक यह तस्वीर राजस्थान के बूंदी की है, लेकिन ऐसी स्थितियां देशभर में देखी जा सकती हैं। अंतिम संस्कार से लेकर अस्थि विसर्जन तक कोरोना संक्रमण का डर देखा जा सकता है।
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लॉक डाउन के कारण अस्थियां विजर्सन के इंतजार में यूं खूंटी पर टंगी देखी जा सकती हैं।
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यह तस्वीर गुजरात के सूरत की है। यहां कोरोना से एक बुजुर्ग की मौत हो गई थी। जब महानगरपालिका ने उमरा श्मशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया, तब पत्नी दूर बस में बैठकर क्रिया-कर्म देखती रही। संक्रमण के डर से वो अपने पति का आखिरी बार भी चेहरा नहीं देख सकी।
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48 साल के विपिन इटली में नौकरी करते थे। कोरोना से उनकी मौत हो गई थी। लेकिन परिवार का कोई भी सदस्य उसके अंतिम संस्कार में नहीं जा सका। संक्रमण के डर से उसका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया गया। विपिन हरियाणा के यमुनानगर का रहने वाला था।
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यह तस्वीर उत्तराखंड की है। यहां हल्द्वानी के रहने वाले नारायण दत्त पाठक का निधन हो गया था। उनका इकलौता बेटा लीलाधर पाठक इंडियन आर्मी में है। वो अरुणाचल प्रदेश में तैनात है। लॉक डाउन के चलते वो अपने पिता को अंतिम मुखाग्नि तक नहीं दे सका।
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यह तस्वीर नई दिल्ली की है। यह हैं 90 साल की काजोदी। कोरोना ने मौत की रस्में ही नहीं, जिंदगी को भी बदलकर रख दिया है। इन्हें जब रहने-खाने की दिक्कत होने लगी, तो ये 400 किमी पैदल चलकर अपने गांव पहुंचीं।

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