India@75:श्यामजी कृष्ण वर्मा ऐसे प्रवासी भारतीय जिन्होंने विदेश से लड़ी भारत की आजादी की लड़ाई

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कई ऐसे क्रांतिकारी रहे हैं, जिन्होंने विदेश में रहते हुए भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हीं में से एक थे श्यामजी कृष्ण वर्मा।
 

Manoj Kumar | Published : Jul 5, 2022 10:17 AM IST

नई दिल्ली. श्यामजी कृष्ण वर्मा सबसे शानदार प्रवासी भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने विदेशों से भारत की आजादी के लिए आजीवन संघर्ष किया। वे आर्यसमाज के दयानंद सरस्वती के शिष्य थे और संस्कृत के विद्वान भी थे। बाद में उन्होंने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का रास्ता अपना लिया और जीवन पर्यंत भारत की आजादी की लड़ाई को धार देते रहे। 

कौन थे श्यामजी कृष्ण वर्मा
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 1857 में गुजरात के मांडवी में हुआ था। वे काशी विद्यापीठ से पंडित की उपाधि पाने वाले पहले गैर-ब्राह्मण संस्कृत विद्वान थे। 1879 में वर्मा ने प्रसिद्ध संस्कृत प्रोफेसर मोनियर विलम्स की मदद से ऑक्सफोर्ड के बैलिओल कॉलेज में प्रवेश लिया। स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद वर्मा भारत लौट आए और जूनागढ़ के राजा के दीवान बन गए। हालांकि कुछ समय बाद वर्मा लंदन लौट आए और प्रसिद्ध आंतरिक मंदिर से बैरिस्टर बन गए। तब तक वर्मा राष्ट्रवादी विचारधारा के अग्रदूत बन चुके थे।

लंदन में स्थापित किया होटल
श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में भारतीय छात्रों के लिए इंडिया हाउस नाम का एक होटल स्थापित किया। इसका उद्देश्य उन भारतीयों की मदद करना था, जिन्हें आवास और वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ता था। जल्द ही इंडिया हाउस उग्रवादी राष्ट्रवादी भारतीय छात्रों का केंद्र बन गया। उस दौरान वीडी सावरकर, भीकाजी कामा, लाला हरदयाल, वीरेंद्रनाथ चटर्जी आदि जैसे प्रसिद्ध राष्ट्रवादी वहां पहुंचे थे। बाद में इन इंडिया हाउस के कट्टरपंथियों में से एक वर्ग साम्यवाद में बदल गया जबकि दूसरा उग्र हिंदू राजनीति में बदल गया।

डार्विनवाद के बड़े प्रशंसक
1909 में इंडिया हाउस से जुड़े छात्र क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा द्वारा ब्रिटिश अधिकारी सर विलियम वायली की हत्या कर दी गई। तब ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तारियां की, छापे भी मारे। उस समय की पत्रिका इंडियन सोशियोलॉजिस्ट पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसके चलते इंडिया हाउस पर ग्रहण लग गया। गिरफ्तार होने से पहले वर्मा पेरिस भाग गए और बाद में जिनेवा चले गए। उन्होंने यूरोपीय देशों में अपनी उग्र राष्ट्रवादी गतिविधियों को जारी। वे राष्ट्रवादी प्रवासियों के भारत स्वतंत्रता लीग के नेता थे। वर्मा हर्बर्ट स्पेंसर और उनके सामाजिक डार्विनवादी दर्शन के बहुत बड़े प्रशंसक थे।

जेनेवा में हुई मृत्यु
1930 में जेनेवा में अपनी मृत्यु से पहले वर्मा ने सेंट जॉर्ज कब्रिस्तान के अधिकारियों से कहा कि वह अपनी राख को भारत भेजने के बाद ही मुक्त हो पाएंगे। आजादी के छप्पन साल बाद वर्मा की अस्थियां गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2003 में सौंपी गई थीं। 2010 में उनके पार्थिव अवशेष को मांडवी में बने क्रांति तीर्थ नामक पार्क के स्मारक में रखा गया। वर्मा की बैरिस्टरशिप जिसे 1909 में रद्द कर दिया गया था, निधन के 85 साल बाद 2015 में बहाल कर दी गईं। 

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