कोरोना पॉजिटिव लोगों ने कैसे जीती जंगः परिवार में 4 लोग, 3 संक्रमित...54 साल पर भारी पड़े वो 14 दिन

देश में हर दिन कोरोना के लाखों केस आ रहे रहे हैं। हजारों लोग मर भी रहे हैं, जबकि ठीक होने वालों की तादाद लाखों में है। फिर भी, इंसान मरने वालों का आंकड़ा देखकर डर और खौफ में जी रहा है। सबको लग रहा है हर कोई इस वायरस की चपेट में आ जाएगा, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। सावधानी, बचाव और पॉजिटिव सोच रखने वाले शख्स से यह बीमारी कोसों दूर भागती है।

लखनऊ : राजधानी में कोरोना की स्थिति भयावह है। डर-भय तो है, लेकिन स्थिति भी झुठलाने वाली नहीं है। लखनऊ के रहने वाले विनय तिवारी ने बताया, पहली बार इतने बड़े संकट को नजदीक से देखा। पैसा-पावर होते हुए भी एक मजबूत इंसान को ये वायरस असहाय बना देती है। 14 दिन मेरे साथ यह सब हुआ। मेरे पास सब कुछ था, फिर भी मैं हार रहा था। सामने एक-एक सांस के लिए संघर्ष कर रही पत्नी के लिए मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था। इन 14 दिन ने वो सबकुछ करवा लिया, जिसे 54 साल की जिंदगी में कभी नहीं किया था।  

Asianetnews Hindi के सुशील तिवारी ने लखनऊ के रहने वाले विनय तिवारी से बात की। 4 लोगों का एक छोटा परिवार, जिसमें 2 बेटा और पति-पत्नी हैं। 3 लोग पॉजिटिव हुए, पति-पत्नी और छोटा बेटा। गर्व करने वाली बात यह है कि 2 पॉजिटिव लोगों ने संघर्ष करके तीसरे पॉजिटिव को वायरस के मुंह से निकाल लिया। 
सातवीं कड़ी में पूरे परिवार के संघर्ष की कहानी पढ़िए शब्दशः...

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पहली कड़ी: कोरोना पॉजिटिव लोगों ने कैसे जीती जंगः 2 दिन बुरे बीते, फिर आया यूटर्न...क्योंकि रोल मॉडल जो मिल गया था

दूसरी कड़ी: कोरोना पॉजिटिव लोगों ने यूं जीती जंगः 3 सबक से देश के पहले जर्नलिस्ट ने वायरस की बजा डाली बैंड

तीसरी कड़ी: कोरोना पॉजिटिव लोगों ने कैसे जीती जंगः 20 Kg वजन कम हुआ फिर भी 60 साल के बुजुर्ग से हार गया वायरस

चौथी कड़ी: कोरोना पॉजिटिव लोगों ने कैसे जीती जंगः दवाई के साथ आत्मबल बढ़ाने-वायरस को हराने किए 2 और काम

पांचवी कड़ी: कोरोना से लोगों ने कैसे जीती जंगः वायरस हावी ना हो, इसलिए रूटीन को स्ट्रॉन्ग, क्वारंटाइन को बनाया इंट्रेस्टिंग

छठीं कड़ी: कोरोना पॉजिटिव लोगों ने कैसे जीती जंगः डरा-सहमा लेकिन जीता क्योंकि मुझे मिला डबल पॉजिटिव वाला डोज

''15 अप्रैल। पंचायत चुनाव के कार्यों के लिए मैं दूसरे जिले में तैनात था। सुबह शरीर में जकड़न होने पर पेरासिटामोल ले लिया। 10-11 बजे के आसपास लखनऊ से बेटे का फोन आया कि मम्मी का ऑक्सीजन लेबल 90 के आसपास आ गया है। एंटीजन टेस्ट पॉजिटिव आई है। मैं भी पॉजिटिव जैसा लग रहा हूं। पत्नी को कई दिन से बुखार था। जांच कराने पर वायरल निकला, लेकिन बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था। पेरासिटामोल खाने से बुखार उतरा, फिर बढ़ जाता। बेटे के बताने पर मैंने पत्नी से बात की, मुझे फील हुआ कि बात करते समय उनकी आवाज बंद हो जा रही है।''

ऑक्सीजन लेबल को देख समझ में नहीं आ रहा था क्या करूं...

''पत्नी का ऑक्सीजन लेबल गिरने, बेटे के पॉजिटिव की बात सुन मैं बेचैन था। अधिकारियों को कंडीशन बताई तो सबने तत्काल घर जाने को कहा। शाम 5 बजे लखनऊ पहुंचा। पत्नी की स्थिति ठीक नहीं थी। ऑक्सीजन लेबल 89-90 पर था। सीएमओ कार्यालय द्वारा सुझाए गए कोविड दवाओं की किट मेडिकल स्टोर से बेटा ले आया। इस दौरान छोटे बेटे ने ऑनलाइन ऑक्सीजन सिलेंडर की खोज शुरू कर दी। सिलेंडर मिलना असंभव सी बात थी। घर से थोड़ी दूर मैट्रिक्स कंपनी के ऑक्सीजन की फ्रेंचाइजी की बात पता चली। बेटे ने वहां जाकर बात की लेकिन वहां सिलेंडर नहीं था। वह ऑक्सीजन कंसंट्रेटर देने को तैयार था। 7 दिन का किराया 25 हजार था। मैंने एक दिन के लिए उसे टाल दिया। बेटा 6 ऑक्सीजन केन ले आया। यह प्लास्टिक के बोतल में ऑक्सीजन होती है, जिसे पुश करके दिया जाता है। एक बोतल को 150 बार पुश किया जा सकता है।''

उस रात कहां-कहां नहीं गया...सब कुछ था, फिर भी असहाय था...

''शाम से रात तक 2 केन समाप्त हो गया। फायदा नहीं दिखा। दूसरे दिन ऑक्सीजन लेबल 86-87 तक आ गया। इधर आरटी-पीसीआर न हो पाने से कोई भी हॉस्पिटल सुनने को तैयार ना था। बेटे ने कहीं से एक मोबाइल नंबर खोजा। यह एक लड़के का था जो घर आकर सैंपल लेता था। कई बार फोन लगाने पर उसका फोन उठा। आने में उसने असमर्थता बताई। मैं असहाय अवस्था में पहुंच गया। भागकर डेंटल कॉलेज गया, जिसे कोविड-जांच के लिए बनाया गया था। वहां टेस्टिंग किट उपलब्ध नहीं था, दोपहर 3 बजे पता करने को कहा। पत्नी को पीजीआई ले गया, वहां भी जांच बंद हो चुकी थी। बिना जांच के इलाज की बात करने काउंटर पर गया तो मुझसे रेफरल लेटर मांगे गए। पत्नी को खड़ा होना, चलना दोनों मुश्किल हो गया था। पीजीआई से वृंदावन में स्थित राजधानी कोविड अस्पताल पहुंचा। पता चला बिना सीएमओ रिकमेंडेशन के कोई मरीज भर्ती नहीं होता है। मुझे कुछ नंबर बताए गए, जिस पर बात करने के लिए कहा। उन नंबरों को मिलाता रहा लेकिन किसी से बात नहीं हुई। एक क्षण के लिए पूरे सिस्टम के प्रति नफ़रत हो गई। ऊंचे अधिकारियों के तामझाम अनर्गल और किसी काम के नहीं लग रहे थे। सोच रहा था, शासन तंत्र के ऐसे शक्ति प्रदर्शन के सारे तामझाम उखाड़ कर फेंक देने चाहिए। गहरी निराशा के साथ घर आ गया।''

यह पता चला कि कैसे मजबूरी का फायदा उठाकर इंसान को लूट रहा इंसान

''16 अप्रैल को इनका ऑक्सीजन लेबल 86 हो गया। थोड़ा चलने पर यह 70 हो जाता। केन से लाभ नहीं हो रहा था। शाम 4 बजे बेटे ने ऑक्सीजन कंसंट्रेटर की जरूरत बताई। मैट्रिक्स की फ्रेंचाइजी पहुंचे। फ्रेंचाइजी वालों ने अब 7 दिन के लिए 35 हजार मांगा। बेटे ने पिछले दिन 25 हजार वाली बात बताई और मजबूरी का फायदा न उठाने को कहा। उसने 25 हजार में 7 दिन के लिए कंसंट्रेटर दे दिया। इससे पत्नी का ऑक्सीजन लेबल अब 90 के आसपास रहने लगा। हटाने पर गिरता था। इस समय एक-एक पल बिताना मुश्किल हो रहा था। बेटा भी पॉजिटिव होने के कारण सुस्त पड़ने लगा था। उसे भी बुखार था।''
       
इतनी टेंशन थी कि जाने-पहचाने वाले रास्तों पर भटक गया...

''16 अप्रैल, शाम को लखनऊ के अस्पतालों और सीएमओ कार्यालय के चक्कर लगाने निकला। यहां तैनात कर्मचारी ने बताया कि बगैर आरटी-पीसीआर टेस्ट रिपोर्ट कुछ नहीं होगा। उसने इमरजेंसी में दिखाने की सलाह दी। पत्नी घर पर थी। मैं लौट पड़ा। वे रास्ते जो मेरे लिए खूब जाने पहचाने थे, उन्हीं पर मैं भटक गया। जैसे कोई शराब के नशे में रास्ता भूल जाए। लगभग एक घंटे तक इस सड़क से उस सड़क पर कार दौड़ाता रहा। किसी तरह घर पहुंचा। पत्नी की स्थिति देख मेरा मन उदास था, लेकिन बच्चे परेशान न हों, इसलिए भावनाओं को बाहर नहीं आने दिया। बड़ा बेटा स्वस्थ था। मुझे उनकी भी चिंता थी, क्योंकि हम तीनों को संभालने और देखरेख का जिम्मा अब उसी के कंधे पर था।''

गांव में मौजूद बूढ़े माता-पिता का दर्द भी असहनीय था...

''इधर, गांव में वृद्ध माता-पिता परेशान थे। मां से जब भी बात होती, वह रोने लगती। मैं उन्हें भगवान पर भरोसा रखने को कहता और ढांढस बंधाता। कुछ रिश्तेदार लखनऊ में इलाज की व्यवस्था न हो पाने से प्रयागराज आने को कहते। मैं जानता था बिना रिपोर्ट के कोई मदद नहीं मिलेगी। दूसरा टेंशन पत्नी को इतना दूर बिना एम्बुलेंस के ले जाना असंभव था। मैं सबसे यही कहता- रिपोर्ट आने दें।''

पत्नी ठीक नहीं थी, बेटे की तबीयत भी खराब हो रही थी...

''इस दिन मेरे एक मित्र ने मुझे लंग्स के लिए एक टेबलेट का नाम बताया। एक मेडिकल स्टोर पर 6 टैबलेट मिला, जबकि पूरे डोज के लिए 12 टैबलेट चाहिए थी। इसी बीच छोटी बहन ने लखनऊ में रहने वाले एक डॉक्टर से संपर्क करने को कहा। मैं उनसे मिलने गोमती नगर गया। डॉक्टर साहब ने लंग्स वाले टैबलेट का एक पत्ता मुझे दिया। इससे उस टैबलेट के प्रति मेरा विश्वास और बढ़ गया। डॉ. ने कहा- ये फेफड़े का संक्रमण रोकने में मददगार है। लौटते समय मैं नर्वस था, मन में तरह-तरह के सवाल उठ रहे थे। पत्नी के स्वास्थ्य को लेकर बेहद डरा था। बेटे की भी तबीयत नासाज हो चली थी, उनके भी स्वास्थ्य की चिंता सताने लगी थी।''

रिपोर्ट वाला भाई भगवान बन गया था...

''17 अप्रैल, सुबह सबसे पहले आरटी-पीसीआर टेस्ट करने वाले लड़के को फोन मिलाया, उससे काफी निवेदन किया, पूरी स्थिति बताई। कहा- बगैर कोविड जांच रिपोर्ट के मेरी कोई मदद नहीं कर रहा है। शायद उसको हमारे संकट का अहसास हो गया। उसने 11 बजे तक आने को कहा। अब मैं सैंपल लेने वाले लड़के का बेसब्री से इंतजार करने लगा। 11 बजे के आसपास उसका फोन आया। उसने पत्नी, बेटे और मेरा सैंपल लिया। मैंने उससे रिपोर्ट को जल्द उपलब्ध कराने का अनुरोध किया।''

हर कोई कहता तत्काल भर्ती करवाओ लेकिन मैं कुछ नहीं कर पा रहा था...

''18 अप्रैल, कोविड रिपोर्ट के इंतजार में एक-एक पल कई दिनों के बराबर लग रहा था। मैंने उस लड़के को कई बार फोन किया। वह  भी परेशान था। उसने बताया कि रिपोर्ट जल्द मिले इसलिए उसने सैंपल को राम मनोहर लोहिया अस्पताल भेजा है। 3 दिन में रिपोर्ट मिल जाएगी। मेरे बार-बार निवेदन पर उसने कहा- शाम तक प्रयास करेगा। इधर, मेरे जितने भी परिचित, मित्र या रिश्तेदार थे सभी पत्नी को तत्काल अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दे रहे थे, लेकिन मैं क्या करता।''
       
एंबुलेंस तो मिला लेकिन नहीं मिल सका एक बेड

''पत्नी की स्थिति देखी नहीं जा रही थी। मां को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए बेटा बार-बार आग्रह कर रहा था। अब मैंने बिना रिपोर्ट एम्बुलेंस के लिए नंबर डायल कर दिया। सोचा, शायद आकस्मिक चिकित्सा सेवा में दिखाने पर अस्पताल भर्ती कर ले। खैर, एक घंटे के अंदर एम्बुलेंस वाला आ गया। पत्नी को लेकर लखनऊ के सिविल अस्पताल पहुंचा। वहां उन्हें 2 इंजेक्शन लगाए गए, लेकिन ऑक्सीजन और बेड की समस्या बताते हुए भर्ती से मना कर दिया। हम फिर लौट आए।''

मां की हालत देख, लिपटकर रो पड़ा था बेटा...

''18 अप्रैल का दिन किसी तरह ऑक्सीजन कंसंट्रेटर के सहारे बीता। इस बीच जब भी किसी से भर्ती कराने की बात करता वो सीएमओ का रिकमेंडेशन और रिपोर्ट मांगता, दोनों मेरे पास नहीं थे। शाम को पत्नी ने धीमी आवाज में मुझसे कहा- बेटा उन्हें पकड़ कर रो रहा था। मैंने उन्हें हिम्मत बंधाई। बेटे को समझाया लेकिन वह मां के स्वास्थ्य के लिए टेंशन में था। शाम तक रिपोर्ट नहीं मिल पाई। रात तमाम बुरे खयालों और शंकाओं के बीच गुजरी।''

फाइनली पत्नी, बेटा और मैं, तीनों हो चुके थे पॉज़िटिव

''19 अप्रैल सुबह के 10.30 बजे रहे होंगे। लड़के ने तीनों की रिपोर्ट व्हाट्सएप कर दिया। पत्नी, बेटा और मैं पॉज़िटिव थे। बेटा सुस्त पड़ चुका था। मुझे अभी लड़ने की कंडीशन में था। पत्नी-बेटे के साथ मैंने भी कोविड के लिए प्रिसक्राइब्ड दवाइयां लेना स्टार्ट कर दिया। रिपोर्ट मिलते ही मैंने कुछ शुभ चिंतकों और लखनऊ कोविड कंट्रोल को फोन किया। पूरी स्थिति बताई। समस्या यह थी कि वो ऑनलाइन रिपोर्ट ट्रेस नहीं कर पा रहे थे। शायद गलती से टेस्टिंग वाले लड़के ने किसी और का फोन नंबर रजिस्टर करा दिया था। सेंटर ने मुझे एक व्हाट्सएप नंबर देते हुए उसपर रिपोर्ट भेजने को कहा। वैसा ही किया। इस बीच पत्नी को भर्ती कराने के लिए कई स्तरों पर बातचीत करता रहा। किसका नाम गिनाऊं। किसी एक का नाम लेना दूसरे के प्रयासों को कमतर आंकना होगा। हालांकि, सारे प्रयास के बावजूद उस दिन बेड नहीं मिला।''

पत्नी की आंखे मुंदने लगी थी, मुझे लगा मुझे से जिंदगी रेत की तरह फिसल रही रही है...

''20 अप्रैल को भी कोविड-कंट्रोल सेंटर से लेकर अन्य प्रमुख स्तरों पर बात करना जारी रखा। इधर बेटे की सुस्ती और बिस्तर पर लगातार दो दिनों से लेटे रहने से मुझे उसकी चिंता होने लगी थी। शाम लगभग 6-7 बजे के बीच का समय रहा होगा। पत्नी ने कुछ देर के लिए कंसंट्रेटर के पाइप को नाक से हटाया और बिस्तर पर बैठ गई। इस समय ऑक्सीजन लेबल 84-85 पर था। वो उठकर बाथरूम गई। वहां से लौटकर आने पर जब मैंने लेबल चेक किया तो यह 70 पर था लेकिन कुछ ही क्षणों में यह 59 पर आ गया। मैंने तत्काल कंसंट्रेटर का पाइप लगाया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं दिखा। उनकी आंखें मुंदने लगी। यह क्षण ऐसा था जैसे मुठ्ठी से जिंदगी रेत की तरह फिसल रही हो। हम असहाय और निराश होकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठ गए थे।''

उस रात का फोन मैं कैसे भूल सकता हूं...

''रात के 9.30 रत्नाकर मौर्य का कॉल आया। इनसे मेरा परिचय मेरे छोटे भाई समान मित्र रजत द्विवेदी ने कराया था। मौर्य ने बताया- आपकी पत्नी के लिए हॉस्पिटल अलॉट होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। एक घंटे बाद सूचित कर दिया जाएगा। उस रात फोन नहीं आया लेकिन एक उम्मीद में ये रात भी बीत गई।''

इस दिन जैसे मुझे किसी ने नई जिंदगी दे दी हो...क्योंकि वो फोन जो आया था...

''21 अप्रैल, सुबह 9 एक फोन आया कि आपके मरीज को लखनऊ का बलरामपुर अस्पताल आवंटित हो गया है। लेकिन आपने किससे सिफारिश कराई थी...नाम बताइए..? समझ में नहीं आया किसका नाम बताऊं, क्योंकि कई लोगों से अनुरोध किया था। फिर भी जो समझ में आया वो सभी नाम बता डाले। करीब डेढ़ घंटे बाद एंबुलेंस आ ग‌ई। पत्नी को लेकर वहां पहुंचा। भर्ती कराने की प्रक्रिया एक घंटे में पूरी हो गई। वार्ड ग्राउंड फ्लोर पर था। वार्ड में जाने के लिए दो मंजिल ऊपर चढ़कर फिर नीचे उतरना था। व्हील चेयर न मिल पाने पर सहारा देते हुए उन्हें सीढ़ियों के रास्ते ले गया। 113 नंबर का बेड मिला। वार्ड में 6 बेड थे, जिसमें 2 ऑक्सीजन से जुड़े थे। एक पर पहले से एक मरीज थी, दूसरा यह 113 नंबर था। मरीजों के लिए भोजन की व्यवस्था अच्छी थी। स्टाफ मरीजों का अच्छे से ध्यान रख रहा था। एक नर्स ने आकर पत्नी को ऑक्सीजन मास्क लगाया और इंजेक्शन दिया। दो घंटे तक मैं वहां बैठा रहा। फिर उन्होंने हिम्मत दिखाते हुए मुझे घर जाने को कहा। पॉजिटिव होने के कारण मुझे भी कमजोरी थी। रात 9 बजे एक डॉक्टर मैडम का फोन आया। उन्होंने धैर्य और हिम्मत के साथ इस स्थिति का सामना करने और किसी तरह की समस्या होने पर तुरंत बात करने को कहा। बातों ने मुझे ढांढस बंधाया।''

अस्पताल के बाहर तड़पते मरीज को देखकर मैं कमजोर हो चला था...

''22 अप्रैल, सुबह-शाम 2 बार अस्पताल ग‌या। इधर बेटे के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हो रहा था। बेटा ही कार चलाकर मुझे अस्पताल ले जाता, जब तक मैं वहां रहता वो बाहर मेरी प्रतीक्षा करता। पत्नी ने बेटे को अंदर ना आने को कहा था। 7 बजे शाम मैं अस्पताल से बाहर आया। गेट पर एक एंबुलेंस को रुकते देखा, उसमें से एक महिला को उसके पति ने सहारा देकर उतारा। उसे बाथरूम जाना था, लेकिन देखते-देखते वह सड़क पर बेसुध हो गई। पति उसे उठाने का प्रयास करता तो वह एक ओर लुढ़क जाती। यह दृश्य देखा नहीं गया। अस्पताल के सामने सड़कों पर लोग मरते दिखाई जान पड़े। उस दिन मैं और कमजोर हो चुका था‌।''

दर्दनाक मंजर देख पत्नी का मन नहीं था कि मैं उससे एक पल के लिए भी दूर जाऊं...

''23 अप्रैल सुबह अस्पताल जाने की हिम्मत नहीं हुई। पत्नी की हालत स्थिर थी, ऑक्सीजन लेबल में सुधार था। शाम को 5 बजे अस्पताल गया। वहां मैडम के पास बैठा था। उसी समय एक व्यक्ति के रोने की आवाज आई। वह अपनी पत्नी की मौत पर रो रहा था, उसके बच्चे अभी छोटे थे। उसका रोना देख, हमारा भी कलेजा फट गया। आज वो नहीं चाह रहीं थी कि मैं उन्हें छोड़कर एक पल के लिए भी दूर जाऊं। बहुत देर तक उनका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करता रहा। थोड़ा सामान्य होने के बाद उन्हें अस्पताल के बाहर इंतजार कर रहे बेटे की चिंता हुई। उन्होंने मुझे घर जाने को कहा।''

हॉस्पिटल वाले व्यक्ति का रोना सुन, मैं बेचैन हो उठा...

''घर पहुंचने पर उस व्यक्ति का रोना याद आया। कमजोरी के साथ बेचैनी बढ़ गई थी। इधर, पत्नी ने बताया कि उठना मुश्किल हो रहा है। डॉक्टर को पूरी स्थिति बताई। साथ ही खुद के भी पॉजिटिव होने की जानकारी दी। डॉक्टर ने तत्काल देखने का आश्वासन दिया। थोड़ी देर बाद पता चला कि डॉक्टर और नर्स आए थे, इंजेक्शन दिया है‌। इधर, मेरा ऑक्सीजन लेबल 92 पर था। मैंने प्राणायाम जैसी कुछ क्रियाएं कर इसे 94 पर ले आया। रात में बेटे ने जबरदस्ती खाना खिलाया। इस बीमारी से लड़ने के लिए मन के साथ-साथ शरीर को भी कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिए। इसलिए जबर्दस्ती कुछ न कुछ खाने का प्रयास करता।''

हॉस्पिटल कर्मचारी की रोंगटे खड़े कर देने वाली बातें सुन मैं पत्नी के पास भागा...

''24 अप्रैल को मैं कमजोर पड़ चुका था। ऑक्सीजन लेबल 92-93 पर था। प्राणायाम और श्वसन की कुछ क्रियाओं से जब यह 94-95 तक बढ़ा तो समझ गया कि इस रोग से लड़ने में मेरा शरीर मेरे साथ है। बेटों को धैर्य रखने के लिए कहा। दोपहर बाद हम अस्पताल गए। मैंने उन्हें कुछ दवाइयां दी और दूसरी मंजिल की ओर चला गया। वहां तीमारदारों के लिए रखी कुर्सी पर बैठ गया। बैठे अभी चंद मिनट ही हुए होंगे कि एक लड़का, जो शायद अस्पताल का कर्मचारी था, मोबाइल पर किसी से कह रहा था- लोग मर रहे हैं..बूढ़े तो बूढ़े, जवान भी मर रहे हैं...युवा मर रहे हैं..हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं…" रोंगटे खड़े कर देने वाली बात सुनकर मैं भागकर पत्नी के पास आ गया। उन्होंने मेरी चिंता की रेखाओं को जैसे पढ़ लिया हो, पूछा- क्या हुआ। मैंने कुछ नहीं बताया। उन्होंने बताया- कल वाले आदमी के रोने से घबराये एक व्यक्ति की आज सुबह मौत हो गई। मैंने उन्हें धैर्य और हिम्मत के साथ ऐसी परिस्थितियों का सामना करने को कहा। आज मैं स्वयं को कुछ ज्यादा ही कमजोर महसूस कर रहा था। शायद पत्नी को मेरी स्थिति का अहसास हो गया था। तभी उन्होंने अगले दिन मुझे आराम करने को कहा और अस्पताल आने से मना कर दिया।''

इस दिन मुझे आत्मबल का ज्ञान हुआ, सारी निराशा दूर हो गई...

''घर पहुंचते ही बिस्तर पर लेट गया। बेटा ऑक्सीजन लेबल चेक कर रहा था। यह 87 तक आ गिरा। बेटों ने अस्पताल में भर्ती होने के लिए कहा। मैंने एक झटके से आक्सीमीटर निकाल दिया। अनुभव किया कि आक्सीमीटर लगाते ही नर्वसनेस बढ़ने लगती थी। मन में आए नकारात्मक विचारों से तत्काल लड़ना शुरू कर दिया। सोचा, घटनाएं तो कुछ भी घट सकती हैं, इनसे नर्वस और क्या भयभीत होना। तय कर लिया कि कोरोना वायरस के बजाय पहले मुझे अपनी स्वयं की मन:स्थिति से लड़ना होगा। एक बात है, खराब होती स्थितियों के बीच एक सकारात्मक पहलू भी छिपा होता है, वह यह कि यहीं से व्यक्ति में लड़ने की आंतरिक शक्ति निकलती है, जो उसे आत्मरक्षा के लिए प्रेरित करती है। मैं ऐसी ही परिस्थिति से दो-चार हो रहा था। मैंने नर्वस होने को अपनी बेवकूफी माना, जो मेरे लिए खतरनाक हो सकती है।''

मनमानी 25 हजार से 40 हजार रु. कर दिया ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का किराया...

''25 अप्रैल, सुबह मेरा ऑक्सीजन लेबल 89 पर था। बावजूद इसके बरामदे, गलियारे में लगभग 1 किलोमीटर टहला। स्वयं काली मिर्च और अदरक की चाय बनाकर पी। 35-40 मिनट तक योगासन और प्राणायाम किए। लेबल 91-92-93 पर अप-डाउन हो रहा था। मैंने बेटों से चिंता न करने और इसे संभाल लेने की बात कही। लेकिन उनकी जिद की वजह से मैंने कोविड-कंट्रोल सेंटर पर फोन कर स्वयं को भर्ती कराने के लिए कहा। कार्यवाही के लिए आश्वासन मिला। इस बीच बेटे ने ऑक्सीजन कंसंट्रेटर वाले से भी बात की तो उसने 7 दिन के किराए को 25000 से बढ़ाकर 40000 बताया। मैंने उनको समझाया कि शरीर मेरा साथ दे रहा है, शायद मुझे कंसंट्रेटर या अस्पताल की जरूरत ना पड़े।''

प्रकृति ने मुझे उत्साह से भर दिया, एक-एक पत्तियों को ध्यान से देखता...

''एक काम मैंने और स्टार्ट कर दिया। सुबह-शाम घर के बरामदे में बैठकर लॉन के पौधों की एक-एक पत्तियों को देखता। हरी-चमकती पत्तियां और इनके बीच चिड़ियों का चहचहाते हुए फुदकना, उसे निहारता और सोचता- प्रकृति के ये अंग कितने निर्दोष हैं। शायद इसी वजह से इनपर कोरोना का असर नहीं है। दोपहर के ताप से ये मुरझाने न पाएं, अकसर पानी के फव्वारे से इन्हें नहलाने लगता। इस बीच कोरोना महामारी को जैसे मैं भूल जाता और मुझे एक नई ताजगी का अहसास होता। इसी दिन पत्नी ने बताया- सुबह 2 घंटे तक वो बिना ऑक्सीजन मास्क के रहीं। उन्हें हिम्मत दी और बिना मास्क के दो घंटे गुजारने पर बधाई दी।''

यह दिन सुकून भरा था, लेकिन अब होने लगी थी खुद की टेंशन...

''26 अप्रैल को अस्पताल नहीं ग‌या। फोन पर बात होती थी। वे बिना ऑक्सीजन मास्क के अब काफी समय गुजार लेती। स्वास्थ्य में सुधार से संतोष हुआ। इधर मेरा लेबल अब 92 से नीचे नहीं जा रहा था। दवाएं लेने के साथ प्राणायाम और योग की क्रियाओं से यह 94 के स्तर को भी छू लेता।''

बंद कर दिया फेसबुक, क्योंकि यह शोक बुक बन चुका था...

''27 अप्रैल को पत्नी ने बताया- वे आज की रात बिना ऑक्सीजन मास्क के रही। लेबल 94-95 रहा। अब उन्हें मेरी चिंता थी। मैंने अपने सुधार के बारे में बताया और परेशान ना होने के लिए कहा। उन्होंने बताया- आरटी-पीसीआर टेस्ट हुआ है, जिसकी रिपोर्ट 28 को आएगी। वैसे मेरा भी ऑक्सीजन लेबल अब सुधर रहा था। अब यह 93 से नीचे नहीं जा रहा था। जब तनाव का आभास होता, सकारात्मक विचारों से मैं स्वयं को रिलैक्स कर लेता। इस बीच फेसबुक देखना बंद कर दिया था, क्योंकि यह शोक बुक बन चुका था। यहां लोग अपने स्वजनों या परिचितों की कोविड से हुई मृत्यु पोस्ट कर रहे थे, यह बुरा लगता। सोचता, माना कि जीवन में सुख-दुख का होना एक सच्चाई है, लेकिन यह एक ऐसी महामारी है, जिससे लड़ने के लिए मजबूत आत्मबल का होना अनिवार्य है, ऐसी पोस्ट आत्मबल को कमजोर बना रही थीं।''

उस दिन हॉस्पिटल स्टाफ के लिए मेरी आंखें नम थीं, एहसास हुआ कि किसी की मौत पर ये भी रोते हैं...

''28 अप्रैल सुबह लगभग 11 बजे पत्नी का कॉल आया। रिपोर्ट निगेटिव आने की गुड न्यूज दी। अस्पताल ने डिस्चार्ज के लिए कहा। मैं चाहता था वो 2 दिन वहां और रहें। उन्होंने समझाया कि यहां लोग बेड के लिए छटपटा रहे हैं। किसी को मेरा बेड मिल जाएगा तो शायद उसकी जान बच जाए। मैं निरुत्तर था। उन्हें डिस्चार्ज कराया। वहां से निकलते समय मेडिकल स्टाफ के प्रति मेरा हृदय कृतज्ञता से भर उठा। यह सोचकर आंखें नम थीं कि ये लोग अपनी परवाह किए बिना नि:स्वार्थ भाव से दूसरों की जान बचाने रात-दिन लगे हैं। अस्पताल में किसी की मृत्यु होने पर ये भी पीपीई किट के पीछे आंसू बहाते हैं। देश की सरकारों को मेरी सलाह है कि चिकित्सा सेवा पूर्ण रूप से सरकार के हाथ में होनी चाहिए, बल्कि सरकार को निजी चिकित्सालयों का भी अधिग्रहण कर लेना चाहिए। खैर, इस पूरी लड़ाई में मेरे दोनों बच्चों ने गजब का धैर्य और साहस दिखाया। इस बीमारी के प्रति जबरदस्त जागरूकता का परिचय दि‌या। शायद यही कारण है कि आज मेरा परिवार कोविड को पीछे छोड़ आया है।''

Asianet News का विनम्र अनुरोधः आइए साथ मिलकर कोरोना को हराएं, जिंदगी को जिताएं...जब भी घर से बाहर निकलें माॅस्क जरूर पहनें, हाथों को सैनिटाइज करते रहें, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें। वैक्सीन लगवाएं। हमसब मिलकर कोरोना के खिलाफ जंग जीतेंगे और कोविड चेन को तोडेंगे। 
#ANCares #IndiaFightsCorona

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