सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती : ब्रिटिश हुकूमत के सबसे बड़े दुश्मन थे 'नेताजी', जानिए उनसे जुड़ी रोचक बातें

नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) की आज 125वीं जयंती है. इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) इंडिया गेट (India Gate) पर महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा (Hologram Statue) का अनावरण करेंगे. 

Asianet News Hindi | Published : Jan 23, 2022 2:58 AM IST / Updated: Jan 24 2022, 10:50 AM IST

नई दिल्ली : नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) की आज 125वीं जयंती है। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) इंडिया गेट (India Gate) पर महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा (Hologram Statue) का अनावरण करेंगे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत के उन महान स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल हैं जिनसे आज के दौर का युवा वर्ग प्रेरणा लेता है। सरकार ने नेताजी को जन्मदिन को पराक्रम दिवस के तौर पर मनाने की घोषणा की है। आइए जानते हैं उनसे जुड़े रोचक तथ्य..

नेताजी का जीवन परिचय
23 जनवरी 1897 को स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक सुभाषचंद्र बोस का जन्म कटक ओडिशा के कटक जिले में हुआ था। उनके पिता एक  प्रसिद्ध वकील जानकीनाथ वकील थे. उनकी माता का नाम प्रभावतीदेवी था। सुभाष चंद्र बोस की शुरुआती शिक्षा कलकत्ता के 'प्रेज़िडेंसी कॉलेज' और 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से हुई थी। इसके बाद वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए ब्रिटेन गए. 1920 में उन्हें सफलता मिली और उन्होंने 'भारतीय प्रशासनिक सेवा' की परीक्षा उत्तीर्ण की। आईसीएस की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सुभाष ने आईसीएस से इस्तीफा दिया। इस बात पर उनके पिता ने उनका मनोबल बढ़ाते हुए कहा था कि जब तुमने देशसेवा का व्रत ले ही लिया है, तो कभी इस पथ से विचलित मत होना।'

इस तरह से आजादी की लड़ाई में कूदे नेताजी
1919 में हुई जलियांवाला बाग हत्याकांड ने पूरे देश के लोगों को विचलित कर दिया था. देश के युवा महात्मा गांधी का समर्थन करने के लिए सड़कों पर उतरे रहे है. इसी दरम्यान सुभाष चंद्र बोस भी आजादी की इस लड़ाई में कूद पड़े.  इसके पीछे एक वजह यह भी थी कि उनके पिता ने अंग्रेजो के दमनचक्र के विरोध में 'रायबहादुर' की उपाधि लौटा दी। इससे सुभाष के मन में अंग्रेजों के प्रति कटुता ने घर कर लिया। 

1938 में बने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष 
इसके बाद नेताजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए. दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। इतिहासकारों का मानना है कि नेताजाी और गांधी के अहिंसा में विश्वास नहीं रखते थे. इसलिए वह जोशिले क्रांतिकारियों के दल के प्रिय बन गए. हालांकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच आजादी को पाने के लिए जो रास्ता अपनाना चाहिए उसको लेकर असहमति थी, लेकिन दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे. 1938 के कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी ने कहा था कि मेरी यह कामना है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में ही हमें स्वाधीनता की लड़ाई लड़ना है। हमारी लड़ाई केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से नहीं, विश्व साम्राज्यवाद से है। 

1939 में कांग्रेस से दिया इस्तीफा
हालांकि, बाद में चलकर नेताजी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और 16 मार्च 1939 को उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद सुभाष ने आजादी के आंदोलन को एक नई राह देते हुए युवाओं को संगठित करने का प्रयास शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में 'भारतीय स्वाधीनता सम्मेलन' के साथ हुई। 5 जुलाई 1943 को 'आजाद हिन्द फौज' का  गठन हुआ। आजाद हिंद फौज में 85000 सैनिक शामिल थे और कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के नेतृत्व वाली महिला यूनिट भी थी. इसके बाद नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 21 अक्टूबर 1943 को एशिया के विभिन्न देशों में रहने वाले भारतीयों का सम्मेलन कर उसमें अस्थायी स्वतंत्र भारत सरकार की स्थापना कर नेताजी ने आजादी प्राप्त करने के संकल्प को साकार किया।इतिहासकारों का मानना है कि महात्मा गांधी सुभाष चंद्र बोस के विचारों से सहमतृ नहीं थे. यही वजह है कि धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी के अंदर की परिस्थितियां सुभाष चंद्र बोस के विपरीत हो गईं. नेताजी  कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे, लेकिन इसके बाद भी गांधी जी और उनके करीबियों ने नेताजी के खिलाफ ही असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था. जिसकी वजह से उन्हें   कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया. 

कोलकाता में नेताजी नजरबंद
इसी समय दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था और नेताजी को लगा कि अगर ब्रिटेन के दुश्मनों से मिला जाए तो उनके साथ मिलकर अग्रेजी हुकूमत से आजादी हासिल की जा सकती है. हालांकि उनके विचारो पर ब्रिटिश हुकूमत को शक था और इसी वजह से ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में उन्हें नजरबंद कर लिया. कुछ दिन बाद नेताजी अंग्रेजों की आंखों में धूल झोकर भागने में सफल हुए और भागर जर्मनी पहुंचे. 

हिटलर हो गया था नेताजी का कायल
भारत को आजाद कराने का सपबना लिए नेताजी जर्मनी के तनाशाह हिटलर से मिलने पहुंचे. इस दौरान एक रोचक वाकया घटित हुआ. दरअसल इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और हिटलर को जान का खतरा था. इसकी चलते नेताजी को पहले एक कमरे में बैठा दिया जाता है. हिटलर अपने बचाव के लिए अपने आस-पास बॉडी डबल रखता था जो बिल्कुल उसी की तरह दिखते थे.  हालांकि, नेताजी कुछ देर कमरे में बैठे रहते है और कुछ देर बाद नेतीजी से मिलने के लिए हिटलर की शक्ल का एक शख्स आया और नेताजी की तरफ हाथ बढ़ाया. नेताजी ने हाथ तो मिला लिया, लेकिन मुस्कुराकर बोलते हैं कि आप हिटलर नहीं हैं मैं उनसे मिलने आया हूं. वह शख्स सकपका गया और वापस चला गया. थोड़ी देर बाद हिटलर जैसा दिखने वाला एक और शख्स नेता जी से मिलने आया. हाथ मिलाने के बाद नेताजी ने उससे भी यही कहा कि वे हिटलर से मिलने आए हैं ना कि उनके बॉडी डबल से. इसके बाद हिटलर खुद नेताजी से मिलने आता हूंऔर नेताजी ने असली हिटलर को पहचान लिया और कहा कि मैं सुभाष हूं..भारत से आया हूं आप हाथ मिलाने से पहले कृपया दस्ताने उतार दें क्योंकि मैं मित्रता के बीच में कोई दीवार नहीं चाहता.' नेताजी के आत्मविश्वास को देखकर हिटलर भी उनका कायल हो गया. उसने तुरंत नेताजी से पूछा तुमने मेरे हमशक्लों को कैसे पहचान लिया. नेताजी ने उत्तर दिया कि 'उन दोनों ने अभिवादन के लिए पहले हाथ बढ़ाया, जबकि ऐसा मेहमान करते हैं.' नेताजी की बुद्धिमत्ता से हिटलर प्रभावित हो गया.

 तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा 
12 सितंबर 1944 को रंगून के जुबली हॉल में शहीद यतीन्द्र दास के स्मृति दिवस पर नेताजी ने अत्यंत जोशिला भाषण देते हुए कहते हैं कि अब हमारी आजादी निश्चित है, परंतु आजादी बलिदान मांगती है। आप मुझे खून दो, मैं आपको आजादी दूंगा।' यही देश के नौजवानों में प्राण फूंकने वाला वाक्य था, जो भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

विवाद दुर्घटना में मौत
16 अगस्त 1945 को टोक्यो के लिए निकलने पर ताइहोकु हवाई अड्डे पर नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और स्वतंत्र भारत की अमरता का जयघोष करने वाला, भारत मां का वीर सपूत , सदा के लिए अमर हो गया।  लेकिन सुभाष चंद्र बोस का शव कभी नहीं मिल पाया और इसी कारण उनकी मौत पर आज भी विवाद बना हुआ है.

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