जस्टिस गोगोई के राज्यसभा नामांकन पर बेवजह मच रहा बवाल

जस्टिस रंजन गोगोई के राज्यसभा के लिए नामित होने पर सोशल मीडिया में जो बेवजह का बवाल खड़ा किया जा रहा है, उसका उद्देश्य कुछ वायरल पोस्ट हासिल करने और मीडिया में प्रचार करने के अलावा कुछ भी नहीं है।

बेंगलुरू. सोमवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित किया। रंजन गोगोई भारत के 46वें चीफ जस्टिस रहे हैं, जो कि कई साहसिक फैसले देने के लिए जाने जाते हैं। गोगोई ने ही रिटायर होने से पहले बरसों पुराने राजनीतिक और धार्मिक विवाद, रामजन्मभूमि के मुद्दे को सुलझाने में हमारी मदद की थी। उन्होंने ही केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश दिलवाने में अहम भूमिका निभाई थी। 

जस्टिग गोगोई के राज्यसभा नामांकन पर सोशल मीडिया में उठे बवाल के बारे में बताने से पहले मैं आपको राज्यसभा के लिए नामित सदस्यों का महत्व भूमिका स्पष्ट करना चाहूंगा। भारतीय संविधान के आर्टिकल 80 (1) (a) और आर्टिकल 80 (3) के मुताबिक 250 सदस्यों वाली राज्यसभा में राष्ट्रपति  कुल 12 सदस्यों को नामित कर सकते हैं। यह सभी सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा से जुड़े हुए होने चाहिए और इन लोगों को अपने क्षेत्र में काम करने का अनुभव होने के साथ साथ विशेष ज्ञान भी होना चाहिए। 

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इन सदस्यों को इसलिए नामित किया जाता है ताकि अपने क्षेत्र में सफलता हासिल करने वाले अनुभवी लोग चुनाव की प्रक्रिया में उलझे बिना सीधे देश की सेवा कर सकें। राज्यसभा में इन लोगों का नामांकन ना सिर्फ इनके अच्छे कार्य का परिणाम होता है, बल्कि इससे सदन में बहस और चर्चा के दौरान विविधता और ज्ञान की मात्रा में वृद्धि होती है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 13 मई 1953 को लोकसभा में कहा था कि ये लोग किसी पार्टी या किसी और चीज का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। बल्कि ये लोग साहित्य, कला, संस्कृति या किसी अन्य चीज के उच्चम स्तर का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के राज्यसभा के लिए नामित होने से सोशल मीडिया पर बवाल मच गया है। सोशल मीडिया पर लोग न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल कर रहे हैं। विपक्ष के नेताओं ने भी इशारे में कहने की कोशिश की है कि चीफ जस्टिस रहने के दौरान जस्टिस रंजन गोगोई ने जो भी फैसले सरकार के पक्ष में सुनाए हैं उन्हीं के बदले में उन्हें राज्यसभा भेजा जा रहा है। यहां जो चीज लोग भूल रहे हैं या उन्हें नहीं पता है वो ये है कि् रंजन गोगोई के पिता केशब चंद्र गोगोई कांग्रेस के बड़े नेता रहे हैं और 1982 में 2 महीने तक असम के मुख्यमंत्री भी रहे थे। जहां तक अयोध्या के फैसले का सवाल है, क्या यह एक निष्पक्ष फैसला नहीं था, जिसे 5 जज की बेंच ने सुनाया था। इसमें सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा चीफ जस्टिस, जस्टिस बोबड़े और भावी चीफ जस्टिस, जस्टिस चंद्रचूर्ण, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर भी शामिल थे। इसी तरह राफेल का मुद्दा भी तीन जज की बेंच ने सुनाया था। 

न्याय प्रणाली में कोई भी जज कोई भी फैसला अकेले नहीं सुना सकता है। और ना ही कोई भी फैसला राजनीतिक प्रभाव में आकर या किसी की सनक और पसंद के मुताबिक लिया जाता है। कोर्ट के सभी फैसले कानूनी प्रकिया के तहत किसी भी पक्ष के अधिकार और उत्तरदायित्व के आधार पर लिए जाते हैं। सभी फैसलों में कोई भी निर्णय सुनाने से पहले उसका कारण भी बताया जाता है। इन बातों से स्पष्ट होता है कि कोर्ट कैसे अपने आखिरी निर्णय तक पहुंचता है। और कम से कम कहने के लिए हर फैसले में संविधान की मर्यादा का ध्यान रखा जाना चाहिए। इसलिए यह कहना कि ये सभी फैसले भेदभावपूर्ण थे, हमारे संविधान का अपमान करने के बराबर है। कोई निर्णय लोगों की अपेक्षा के मुताबिक नहीं आया इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि वह फैसला भेदभावपूर्ण था। ये सभी निर्णय कानूनी रूप से उचित थे और भविष्य में उन्हें उदाहरण के रूप में भी इस्तेमाल किया जाएगा। 

कोर्ट के पूर्व जज का राजनीतिक सिस्टम का हिस्सा होना किसी भी कानूनी नियम या कानून का उल्लंघन नहीं है। वास्तव में इस मामले में कोई कानून ही नहीं है। और इससे पहले कि विपक्षी दल सरकार पर सवाल खड़े करें। अब तक कुल 6 जजों ने किसी ना किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता ली है, इसमें विपक्षी दल भी शामिल है। जस्टिस अभय थिप्से ने रिटायर होने के बाद साल 2018 में कांग्रेस पार्टी ज्वाइन की थी। इतिहास में ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। भारत के चीफ जस्टिस रहे रंगनाथ मिश्रा, पी सदाशिवम, जस्टिस बहारुल इस्लाम, केएस हेगड़े, विजय बहुगुणा और एम रामा जोइस ने जज के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद अलग अलग राजनीतिक पार्टियों की सदस्यता ली थी। 

अगर जस्टिस बहारूल इस्लाम की बात करें तो पहले उन्हें कांग्रेस की तरफ से 1972 में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया फिर उन्होंने गुवाहाटी हाईकोर्ट में जज बनने के लिए इस पद से इस्तीफा दे दिया। जब वो गुवाहाटी हाईकोर्ट से रिटायर हुए तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया गया। यह अपने आप में अद्वितीय था। उन्होंने बिहार के तत्कालीन मुखयमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को शहरी कोऑपरेटिव बैंक घोटाले में बरी कर दिया था। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़ा था और राज्यसभा के सदस्य भी चुने गए थे। इस घटना के बारे में हमें कम ही सुनने को मिलता है, क्योंकि जिन लोगों ने इतिहास लिखा उन्होंने हकीकत नहीं लिखी। 

मौजूदा समय में जस्टिस गोगोई ने कोई राजनीतिक पार्टी भी नहीं ज्वाइन की है। वो राज्यसभा के मनोनीत सदस्य हैं। इसके बाद भी जस्टिस रंजन गोगोई के राज्यसभा के लिए नामित होने पर सोशल मीडिया में जो बेवजह का बवाल खड़ा किया जा रहा है, उसका उद्देश्य कुछ वायरल पोस्ट हासिल करने और मीडिया में प्रचार करने के अलावा कुछ भी नहीं है।   

कौन हैं अभिनव खरे

अभिनव खरे एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीईओ हैं, वह डेली शो 'डीप डाइव विद अभिनव खरे' के होस्ट भी हैं। इस शो में वह अपने दर्शकों से सीधे रूबरू होते हैं। वह किताबें पढ़ने के शौकीन हैं। उनके पास किताबों और गैजेट्स का एक बड़ा कलेक्शन है। बहुत कम उम्र में दुनिया भर के 100 से भी ज्यादा शहरों की यात्रा कर चुके अभिनव टेक्नोलॉजी की गहरी समझ रखते है। वह टेक इंटरप्रेन्योर हैं लेकिन प्राचीन भारत की नीतियों, टेक्नोलॉजी, अर्थव्यवस्था और फिलॉसफी जैसे विषयों में चर्चा और शोध को लेकर उत्साहित रहते हैं। उन्हें प्राचीन भारत और उसकी नीतियों पर चर्चा करना पसंद है इसलिए वह एशियानेट पर भगवद् गीता के उपदेशों को लेकर एक सफल डेली शो कर चुके हैं।

मलयालम, अंग्रेजी, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, बांग्ला और हिंदी भाषाओं में प्रासारित एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीईओ अभिनव ने अपनी पढ़ाई विदेश में की हैं। उन्होंने स्विटजरलैंड के शहर ज्यूरिख सिटी की यूनिवर्सिटी ETH से मास्टर ऑफ साइंस में इंजीनियरिंग की है। इसके अलावा लंदन बिजनेस स्कूल से फाइनेंस में एमबीए (MBA) भी किया है।    

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