
पटनाः सीमांचल की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हो गया है जहां असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM और लालू प्रसाद यादव की राजद के बीच मुस्लिम-यादव वोट बैंक को लेकर जंग छिड़ गई है। 2020 में AIMIM ने राजद के पारंपरिक 'MY' (मुस्लिम-यादव) समीकरण में बड़ी सेंध लगाकर पांच सीटें जीती थीं, जिससे इस क्षेत्र की राजनीति में भूचाल आ गया। आगामी विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां अपनी-अपनी साख बचाने के लिए तैयार हैं और 24 सीटों वाले सीमांचल में यह दंगल बिहार की समग्र राजनीति पर गहरा असर डाल सकता है।
राष्ट्रीय जनता दल के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई है क्योंकि सीमांचल उनका पारंपरिक गढ़ माना जाता था। लालू प्रसाद की सामाजिक न्याय की राजनीति में मुस्लिम समुदाय एक मजबूत स्तंभ रहा है, लेकिन AIMIM के आगमन से यह समीकरण बिगड़ गया है। ओवैसी की पार्टी का दावा है कि वे मुस्लिम समुदाय के असली प्रतिनिधि हैं और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम हितों की अनदेखी हो रही है।
सीमांचल के चार जिलों - अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया में लगभग 40-45% मुस्लिम आबादी है, जो इस क्षेत्र की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाती है। यादव समुदाय की 12-15% आबादी के साथ मिलकर यह 'माय' समीकरण दशकों से इस क्षेत्र में राजद की मजबूती का आधार रहा है। 2015 तक राजद इस फॉर्मूले के दम पर सीमांचल में लगभग 18-20 सीटें जीतता था, लेकिन 2020 में यह संख्या घटकर 8 रह गई।
AIMIM की 2020 की सफलता के पीछे कई कारक थे। मुस्लिम युवाओं में बढ़ती पहचान की राजनीति, स्थानीय मुद्दों पर फोकस और राजद से बढ़ती निराशा ने ओवैसी की पार्टी को फायदा पहुंचाया। अमौर, बैसी, जोकीहाट, करगहर और बरारी जैसी सीटों पर AIMIM की जीत ने साबित कर दिया कि मुस्लिम मतदाता अब एक विकल्प की तलाश में हैं।
राजद के लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसका कोर वोट बैंक बंट गया है। मुस्लिम समुदाय में AIMIM के बढ़ते प्रभाव से राजद के नेतृत्व को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा है। तेजस्वी यादव ने इस बार सीमांचल में अधिक समय बिताया है और स्थानीय मुस्लिम नेताओं को अधिक महत्व दिया जा रहा है। राजद का तर्क है कि AIMIM सांप्रदायिक राजनीति कर रही है जबकि वे धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पैरोकार हैं।
ओवैसी की रणनीति बिल्कुल अलग है। वे सीधे मुस्लिम पहचान की राजनीति करते हैं और कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम हितों की अनदेखी हो रही है। AIMIM का दावा है कि 70 साल की आजादी के बाद भी मुस्लिम समुदाय पिछड़ा हुआ है और पारंपरिक धर्मनिरपेक्ष पार्टियां केवल वोट के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं। उनका नारा है 'वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा'।
यादव समुदाय की राजनीति में भी बदलाव आया है। पारंपरिक रूप से राजद के साथ खड़े यादव समुदाय में भी विभाजन के संकेत दिख रहे हैं। कुछ यादव नेता AIMIM के साथ तालमेल की बात कर रहे हैं, जबकि राजद का पुराना गार्ड इसका विरोध कर रहा है। तेजस्वी यादव के युवा नेतृत्व से कई उम्मीदें हैं, लेकिन सीमांचल में उनकी परीक्षा होनी बाकी है।
2020 के चुनावी आंकड़े देखें तो मुस्लिम वोट का बंटवारा साफ दिखता है। राजद को लगभग 35-40% मुस्लिम वोट मिला, जबकि AIMIM को 25-30% मुस्लिम वोट मिला। यह विभाजन राजद के लिए घातक साबित हुआ क्योंकि एकजुट मुस्लिम वोट के बिना वे कई सीटें हार गए। कांग्रेस और वामपंथी दलों को भी मुस्लिम वोट का एक हिस्सा मिला, जिससे महागठबंधन के भीतर भी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई।
इस दंगल का असर केवल सीमांचल तक सीमित नहीं रहेगा। बिहार के अन्य हिस्सों में भी मुस्लिम समुदाय AIMIM को एक विकल्प के रूप में देख सकता है। राजद के लिए यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई है क्योंकि अगर सीमांचल में उनकी जड़ें हिल जाती हैं, तो पूरे बिहार में उनकी स्थिति कमजोर हो सकती है। ओवैसी के लिए यह साबित करने का मौका है कि वे केवल हैदराबाद तक सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम राजनीति के नेता बन सकते हैं।
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