बिहार में कौन बनेगा दलितों का मसीहा? जीतन राम मांझी vs चिराग पासवान, जानें किसमें-कितना है दम?

Published : Sep 06, 2025, 09:28 AM IST
jitan ram manjhi and chirag paswan

सार

बिहार चुनाव 2025ः पासवान के निधन के बाद बिहार में दलित नेतृत्व के लिए मांझी और चिराग में टक्कर है। 40 आरक्षित सीटों पर इसका असर सरकार गठन पर पड़ेगा। मांझी का महादलित कार्ड और चिराग की विरासत, कौन जीतेगा यह देखना होगा।

पटनाः रामविलास पासवान की मौत के बाद बिहार में दलित राजनीति के सिंहासन पर बैठने के लिए जीतन राम मांझी और चिराग पासवान के बीच महासंग्राम छिड़ गया है। आगामी विधानसभा चुनाव से पहले दोनों नेता दलित समुदाय के असली प्रतिनिधि होने का दावा कर रहे हैं। 40 आरक्षित सीटों पर इस नेतृत्व की जंग का सीधा प्रभाव पड़ने वाला है, जो सरकार बनाने में निर्णायक साबित हो सकता है। केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी का महादलित कार्ड और चिराग पासवान की पिता की विरासत के बीच कौन जीतेगा यह नेतृत्व का खेल, यह आने वाले महीनों में तय होगा। 2020 में रामविलास पासवान की मौत ने बिहार की दलित राजनीति में एक बड़ा शून्य पैदा कर दिया था। चार दशक तक दलित समुदाय के निर्विवाद नेता रहे रामविलास पासवान का राजनीतिक कद और प्रभाव किसी और के पास नहीं था।

चिराग पासवान

रामविलास की मौत के बाद पासवान परिवार में बंटवारा हो गया। चिराग पासवान ने अपने चाचा पारस पासवान से अलग राह अपनाई। यह विभाजन दलित वोट बैंक के बिखराव का कारण बना। चिराग पासवान ने LJP(R) के साथ अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की है, फिलहाल वो एनडीए के सहयोगी और केंद्र में मंत्री भी है। चिराग पासवान खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान भी बताते हैं।

चिराग पासवान ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का दावा किया है। 33 साल की उम्र में वे युवा दलित नेतृत्व की छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं। LJP(R) के जरिए वे नई राजनीतिक पहचान स्थापित करने में लगे हैं। रामविलास पासवान का बेटा होना उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है और दोशी, कोइरी समुदाय में पारिवारिक प्रभाव है।

जमुई से लेकर हाजीपुर तक का राजनीतिक नेटवर्क चिराग के पास है और नई पीढ़ी के दलित वोटरों में उनकी लोकप्रियता देखी जा सकती है। रामविलास की विरासत को बचाने के दावे के साथ चिराग ने खुद को LJP(R) का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित किया है और युवा चेहरों को आगे लाने की रणनीति अपना रहे हैं।

जीतन राम मांझी

जीतन राम मांझी ने महादलित राजनीति के जरिए अपनी अलग पहचान बनाई है। 2014 में बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उन्होंने दलित राजनीति में अपनी दावेदारी मजबूत की है। वर्तमान में केंद्रीय मंत्री होने का फायदा उठाकर वे अपने राजनीतिक कद को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। मुसहर समुदाय से आने वाले मांझी महादलित कैटेगरी में शामिल 21 जातियों का नेतृत्व करने का दावा करते हैं।

हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के संस्थापक मांझी एनडीए के सहयोगी हैं और 2020 में 3 आरक्षित सीटें जीतकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। गया, अरवल, जहानाबाद में उनका मजबूत आधार है और मगध क्षेत्र में दलित समुदाय में उनका प्रभाव देखा जा सकता है। केंद्रीय मंत्री का स्टेटस मिलने से उनका राजनीतिक वजन बढ़ा है और महादलित विकास योजनाओं का श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं।

मांझी vs चिराग, कहां किसकी पकड़

राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र की लड़ाई में मांझी का क्षेत्र मगध क्षेत्र (गया, अरवल, जहानाबाद), महादलित बहुल इलाके और दक्षिण बिहार की आरक्षित सीटें हैं। चिराग का क्षेत्र मुंगेर-जमुई बेल्ट, पारंपरिक LJP गढ़ और मध्य बिहार की कुछ सीटें हैं। पटना के आसपास की आरक्षित सीटें, गंगा के उत्तरी इलाके और शहरी दलित वोटर दोनों के लिए ओवरलैपिंग एरिया हैं।

बिहार की दलित राजनीति

दलित राजनीति का ऐतिहासिक संदर्भ देखें तो बाबू जगजीवन राम से शुरुआत हुई थी। जगजीवन राम युग (1946-1986) में कांग्रेस के दलित नेता के रूप में केंद्रीय मंत्री के रूप में लंबा कार्यकाल रहा और दलित राजनीति की नींव रखी। रामविलास पासवान युग (1969-2020) में जगजीवन राम की विरासत आगे बढ़ाई गई, समाजवादी राजनीति से जुड़ाव हुआ और गैर-कांग्रेसी दलित नेतृत्व का उदय हुआ।

1977 का महत्वपूर्ण मोड़ था जब जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़ी और जनता पार्टी का गठन किया। 1989-90 के बदलाव में वी.पी. सिंह सरकार में रामविलास की भूमिका देखी गई। मंडल कमीशन के प्रभाव से पिछड़ा-दलित गठजोड़ की राजनीति शुरू हुई और लालू प्रसाद के दौर में इसे और मजबूती मिली।

सरकार बनाने में निर्णायक होंगी आरक्षित सीट

वर्तमान में बिहार में दलित नेतृत्व की जंग केवल मांझी vs चिराग का व्यक्तिगत मामला नहीं है। यह रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद पैदा हुए राजनीतिक शून्य को भरने की लड़ाई है। दोनों नेताओं के पास अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं। 40 आरक्षित सीटों पर इस महासंग्राम का परिणाम न केवल सरकार बनाने में निर्णायक होगा, बल्कि अगले दो दशक तक बिहार में दलित राजनीति की दिशा भी तय करेगा। फिलहाल दोनों अपनी-अपनी जमीन मजबूत बनाने में लगे हैं। 2025 का चुनाव तय करेगा कि रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत का असली वारिस कौन है - अनुभवी मांझी या युवा चिराग।

2020 की स्थिति

40 आरक्षित सीटों के चुनावी गणित में 2020 की स्थिति देखें तो एनडीए को 21 सीटें मिली थीं (मांझी-3, भाजपा-11, जदयू-7) और महागठबंधन को 18 सीटें मिली थीं (राजद-9, कांग्रेस-5, वामपंथी-4)।

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