
पटना: बिहार विधानसभा चुनाव के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि राज्य की राजनीति में अब निर्दलीय प्रत्याशियों का दौर लगभग समाप्त हो चुका है। एक समय था जब 243 सीटों वाली विधानसभा में 20 से अधिक निर्दलीय जीतकर सदन पहुंचते थे, लेकिन 2020 के चुनाव तक यह संख्या सिमटकर केवल एक पर आ गई। यह आकड़ा साफ तौर पर दर्शाता है कि बिहार की राजनीति में अब बड़े गठबंधनों का वर्चस्व स्थापित हो चुका है।
झारखंड से विभाजन के बाद हुए शुरुआती चुनावों में निर्दलीय प्रत्याशियों की सफलता दर काफी प्रभावशाली थी। 2000 के विधानसभा चुनाव में, 3,941 कुल उम्मीदवारों में से 20 से अधिक निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी।
2005 के बाद, जैसे-जैसे राजनीतिक स्थिरता आई, निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या कम होती गई। 2020 में रिकॉर्ड 3,711 उम्मीदवारों के बावजूद, जीत केवल एक निर्दलीय प्रत्याशी को मिली।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, इस बदलाव के पीछे मुख्य कारण बिहार में NDA (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) और महागठबंधन (INDIA गठबंधन) का मजबूत होना है। मतदाता अब बड़े गठबंधनों के इर्द-गिर्द ध्रुवीकृत हो चुके हैं। वे यह मानते हैं कि निर्णायक जीत केवल इन्हीं दो गठबंधनों में से किसी एक को मिलेगी, जिसके चलते निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट देने से बचते हैं।
बड़ी पार्टियां अब टिकट वितरण में अधिक सावधानी बरतती हैं, जिससे पार्टी के भीतर बागी होकर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों की संख्या कम हुई है। एक निर्दलीय प्रत्याशी के लिए बड़े दलों के वित्तीय और संगठनात्मक तंत्र का मुकाबला करना अब लगभग असंभव हो गया है।
2025 के चुनाव में 2,616 उम्मीदवार मैदान में हैं, जिसमें से 41% नए चेहरे हैं। हालांकि, इनमें से अधिकांश प्रत्याशी NDA और महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़ रहे हैं। यह स्पष्ट है कि बिहार की राजनीति अब निर्णायक रूप से पार्टी केंद्रित हो चुकी है, जहाँ निर्दलीय प्रत्याशी केवल चुनावी भीड़ का हिस्सा बनकर रह गए हैं।
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