बेलछी कांड: 11 मजदूरों को गोली मारी और जला दिया...क्या थी उस रात की कहानी?

Published : Oct 28, 2025, 01:39 PM IST
belchhi Incident Bihar

सार

1977 के बेलछी नरसंहार के बाद, सांसद रामविलास पासवान पीड़ितों की राख संसद ले गए। उन्होंने इसे जातीय हिंसा बताकर सरकार का विरोध किया। इस घटना ने उन्हें एक राष्ट्रीय दलित आइकन के रूप में स्थापित कर दिया।

पटनाः 29 मई 1977 की तारीख भारतीय दलित इतिहास में एक बर्बर अध्याय के रूप में दर्ज है। बिहार के बेलछी गांव में दबंगों ने नौ दलित (अधिकतर पासवान समुदाय के) सहित 11 भूमिहीन मजदूरों को गोली मारकर आग के हवाले कर दिया था। इस दिल दहला देने वाली घटना ने पूरे देश को सन्न कर दिया। लेकिन इस त्रासदी ने ही रामविलास पासवान को एक स्थानीय नेता से उठाकर राष्ट्रीय दलित आइकन बना दिया। यह सब हुआ संसद के भीतर एक ऐसे अविश्वसनीय कृत्य के कारण, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।

जब यह घटना हुई, तब बिहार में राष्ट्रपति शासन था, जिसका अर्थ था कि बेलछी सीधे केंद्र की जनता पार्टी सरकार के अधीन आता था। विडंबना यह थी कि पासवान खुद इसी सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा थे। लेकिन पुलिस ने मामले को दबाने की कोशिश की और इसे साधारण 'गैंग वार' बताकर टाल दिया। सत्ता के इस झूठ को चुनौती देने की हिम्मत उस समय लोकसभा में मौजूद 85 दलित सांसदों में से किसी ने नहीं की, सिवाय एक युवा और बेबाक सांसद रामविलास पासवान के।

13 जुलाई 1977 को संसद में जब इस घटना पर चर्चा हो रही थी, तो पासवान ने वह कर दिखाया जो भारतीय संसदीय इतिहास में अभूतपूर्व था। वह चुपके से बेलछी के पीड़ितों के अंतिम अवशेषों (राख) का एक हिस्सा लेकर संसद पहुंचे और उसे लोकसभा के भीतर फर्श पर रख दिया। यह पहली और शायद आखिरी बार था जब किसी सांसद ने मानव अवशेष सदन के फर्श पर रखे थे।

यह सिर्फ विरोध नहीं था, यह अन्याय के ख़िलाफ़ एक ज्वलंत प्रदर्शन था। जब तत्कालीन गृह मंत्री चरण सिंह सरकारी रिपोर्ट पढ़ने लगे, तो पासवान बीच में खड़े हो गए और दहाड़कर बोले, "यह रिपोर्ट झूठ है, यह हत्या गैंगवार नहीं, बल्कि जातीय हिंसा है" उन्होंने अपनी ही सरकार पर दलितों के प्रति उदासीनता का आरोप लगाया। यह उनकी बेबाकी ही थी जिसने सदन में सनसनी मचा दी और पूरे देश के मीडिया का ध्यान खींचा।

इस एक घटना ने पासवान की छवि को हमेशा के लिए स्थापित कर दिया। अब वह सिर्फ एक पार्टी के सांसद नहीं थे, वह दलितों की सशक्त और निडर आवाज़ बन चुके थे, जो सत्ता में रहकर भी सत्ता को चुनौती दे सकता था। इस घटना के बाद इंदिरा गांधी ने इसका पूरा राजनीतिक फायदा उठाया। वह खुद हाथी पर चढ़कर कीचड़ भरे रास्तों से बेलछी पहुँचीं। इस यात्रा ने कांग्रेस की वापसी की ज़मीन तैयार की, लेकिन पासवान की व्यक्तिगत छवि को और मज़बूती मिली।

पासवान को तब एहसास हुआ कि राजनीतिक सत्ता से ही सामाजिक न्याय की लड़ाई जीती जा सकती है। यह घटना उनकी 'संघर्षशील नेता' की छवि को ताकत देती रही, जिससे वह अपने पूरे करियर में दलितों के बीच लोकप्रिय बने रहे। बेलछी ने उन्हें बताया कि दलित नेता के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए न केवल सिद्धांतों की ज़रूरत है, बल्कि सत्ता को साधने और सही समय पर त्यागने की राजनीतिक क्षमता की भी आवश्यकता है। यह उनके जीवन का वह टर्निंग पॉइंट था, जिसने उन्हें राजनीति के एक साधारण सिपाही से दलित समाज के एक ऐसे मजबूत स्तंभ में बदल दिया, जिसका कद उस समय के बड़े नेताओं से भी ऊँचा हो गया था।

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