सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव एक तरफ ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए चुनावी रणनीति बना रहे हैं। दूसरी ओर उनकी ही पार्टी के नेता ब्राह्मण विरोधी बयान देकर से अखिलेश यादव की नीतियों पर पानी फेरते हुए नजर आ रहे। आपको बता दें कि सपा अध्यक्ष की पार्टी के बड़े ब्राह्मण नेताओं के साथ हुई मीटिंग के 4 दिन बाद ही सुल्तानपुर में इसौली सीट से सपा विधायक अबरार अहमद ने विवादित और ब्राह्मण विरोधी बयान दिया। उन्होंने ब्राह्मण और क्षत्रियों को चोर बताया।
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव (UP Vidhan Sabha Election 2022) को लेकर 2 दिन पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने प्रेस वार्ता करते हुए चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया। जिसके बाद अलग-अलग जाति धर्म और वर्गों को साधने में जुटे राजनीतिक दलों के चुनावी अभियान पर एक विराम सा लग गया। लेकिन 2022 की चुनावी तारीखों और आचार संहिता के ऐलान से पहले उत्तर प्रदेश के सपा, बसपा समेत सभी राजनीतिक दलों ने सूबे के भीतर अलग-अलग अभियानों के सहारे ब्राह्मण वोट बैंक पर कुछ खास नजर बनाकर रखी। शायद बीते चुनावों में हुए गलती को वे दुबारा दोहराना नहीं चाहते थे। ब्राह्मणों वोट बैंक को साधने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की ओर से चलाए गए अभियानों का बड़ा फायदा 2022 के चुनाव में देखने को मिल सकता है। तो आइए, अब हम आपको इन्हीं राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से कहे गए उन ब्राह्मण विरोधी बयानों को बताते हैं, जो इस चुनाव में पार्टियों को मिलने वाले फायदे पर ग्रहण गया सकते हैं।
ब्राह्मणों को साधने में जुटे अखिलेश, सपा नेता बोले- ब्राह्मणों की जरूरत नहीं
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव एक तरफ ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए चुनावी रणनीति बना रहे हैं। दूसरी ओर उनकी ही पार्टी के नेता ब्राह्मण विरोधी बयान देकर से अखिलेश यादव की नीतियों पर पानी फेरते हुए नजर आ रहे। आपको बता दें कि सपा अध्यक्ष की पार्टी के बड़े ब्राह्मण नेताओं के साथ हुई मीटिंग के 4 दिन बाद ही सुल्तानपुर में इसौली सीट से सपा विधायक अबरार अहमद ने विवादित और ब्राह्मण विरोधी बयान दिया। उन्होंने ब्राह्मण और क्षत्रियों को चोर बताया। साथ ही उन्होंने कहा कि चुनाव जीतने के लिए उन्हें ब्राह्मणों और क्षत्रियों के वोट की जरूरत नहीं है, उनके बिना भी वह जीत सकते हैं। सपा नेता के इस बेतुके बयान पर ब्राह्मणों के हितैषी होने के दावा करने वाले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी चुप रहे। ऐसे में लगातार खड़े हो रहे सवालों में एक सवाल यह भी था कि ब्राह्मणों के हितैषी होने का दावा करने वाले व इन्हीं ब्राह्मणों के वोटबैंक का सहारा लेने के लिए भगवान परशुराम की मूर्ति लगवाने वाले अखिलेश यादव अपने ही नेताओं की ब्राह्मण विरोधी मानसिकता को कैसे नहीं बदल पाए।
मायावती ने 'तिलक तराजू और तलवार...इनको मारो जूते चार' के नारे से शुरू की थी राजनीति
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा सुप्रीमो मायावती को दलितों की देवी के नाम से अक्सर संबोधित किया जाता है। जिसकी सबसे बड़ी वजह मायावती के बयानों और पार्टी की रणनीति में दिख रहा दलितों के प्रति प्रेम है। यदि दलित प्रेम के चलते एक समय में मायावती ने 'तिलक तराजू और तलवार...इनको मारो जूते चार' का नारा देते हुए अपनी राजनीति की शुरुआत की। लेकिन दलितों को आकर्षित करने के लिए दिए गए इस नारे के कारण जब सवर्णो को पार्टी से जोड़ने में दिक्कत आई, तो मायावती ने इसे बदल दिया और 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। सत्ता में आने के बाद मायावती की ओर से ब्राह्मणों को बड़े स्तर से नजर अंदाज किया गया। लिहाजा यूपी के ब्राह्मणों ने उन्हें वापसी का रास्ता दिखाया। अब 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती ने सत्ता वापसी के लिए एक बार फिर वही ब्राह्मण फॉर्मूले को अपनाया। उन्होंने यूपी के ब्राह्मणों को साधने के लिए प्रदेश के कई जिलों में प्रबुद्ध सम्मेलनों का आयोजन किया। इन सम्मेलनों में मायावती ने दावा किया है कि प्रबुद्ध वर्ग की मदद से इस बार बीएसपी की सरकार बनेगी और इस सरकार में ब्राह्मण खुश रहेंगे। ऐसे में मायावती के पुराने समय में ब्राह्मणों को लेकर दिए गए विवादित बयान और फिर ब्राह्मणों को रिझाने के लिए शुरू किया गया प्रबुद्ध सम्मेलन कहीं न कहीं 2022 के चुनावी नतीजों पर एक बड़ा असर डाल सकते हैं।
सीएम योगी पर लगते रहे हैं ब्राह्मण विरोधी होने के आरोप
उत्तर प्रदेश में सीएम योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से लगातार यूपी में हिंदुत्व की राजनीति शुरू हो गई। इतना ही नहीं, सत्ता में आने के कुछ समय बाद से ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर विपक्ष ब्राह्मण विरोधी होने व ठाकुर वाद फैलाने का आरोप लगाता रहा है। विपक्ष का दावा है कि योगी सरकार में ठाकुरवाद के आगे ब्राह्मण वर्ग का ध्यान नहीं दिया गया। शायद इस वजह को सत्ता धारी बीजेपी की सरकार ने स्वीकार भी किया। जिसके चलते चुनाव के नजदीक आते ही अन्य दलों की तरह बीजेपी को भी नाराज ब्राह्मणों को मनाने के लिए बड़ा मन्थन करना पड़ा। हाल ही में बीजेपी की ओर से दिल्ली में एक खास बैठक बुलाई गई, जिसमें बीजेपी के कई बड़े ब्राह्मण चेहरों की एक कमेटी का गठन करते हुए उन्हें प्रदेश के ब्राह्मण वर्ग को साधने की जिम्मेदारी सौंपी गई। कुछ समय पहले बीजेपी के ब्राह्मण विरोधी होने से जुड़ा एक मामला यूपी के कानपुर जिले से आया, जहां बीजेपी की महिला विधायक प्रतिभा शुक्ला ने अपनी ही पार्टी के सांसद देवेंद्र सिंह भोले पर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाया। बता दें कि महिला विधायक के आरोपों के बाद सांसद ने भी पलटवार किया। सांसद देवेंद्र सिंह भोले ने कहा कि 'उनसे (प्रतिभा शुक्ला) बड़ा ब्राह्मण मैं हूं, मैं जनेऊ भी पहनता हूं।' आपको बता दें कि बीजेपी की एमएलए ने कार्यक्रम के दौरान सांसद की ओर इशारा करते हुए कहा कि 'आप वोट तो लेते हैं ब्राह्मण का, पर ब्राह्मण की बात नहीं करते हैं। '
एक दौर में ब्राह्मण नेताओं के हाथ में होती थी यूपी की कमान
सामने आए आंकड़ों के अनुसार, यूपी में ब्राह्मण आबादी 11 से 13 फीसदी के बीच है। एक वक्त रहा जब यूपी की सियासत की कमान ब्राह्मण नेताओं के हाथ में ही रही। लेकिन यह ताकत 1989 के बाद अचानक से खत्म हो गई और ब्राह्मणों के पास यूपी में अंतिम सीएम के रूप में नारायण दत्त तिवारी के नाम की कहानी रह गई। आपको बता दें कि 1947 के बाद यूपी को 6 कद्दावर ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिले। यूपी के पहले सीएम गोविंद बल्लभ पंत (1952-1954) ब्राह्मण ही थे। उनके बाद सुचेता कृपलानी (1963-1967), कमलापति त्रिपाठी (1971-1973), हेमवती नंदन बहुगुणा (1973-1975), श्रीपति मिश्र (1982-1984) और नारायण दत्त तिवारी (1976-1977, 1984-1985, 1988-1989) भी यूपी के सीएम बने। 1990 के दशक में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति प्रभावी हुई और यूपी का ब्राह्मण नेतृत्व अपनी सियासी ताकत को खो बैठा।