सार
जो एक वोट के फर्क पर सवाल पूछते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि 17 अप्रैल 1999 के दिन सिर्फ एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार गिर गई थी। बाद में मध्यावधि चुनाव हुए और सरकारी खजाने को करोड़ों की चपत लगी।
नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा चुनाव के साथ ही कुछ राज्यों में उपचुनाव होने वाले हैं। चुनाव लोकतांत्रिक देशों में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके जरिए मतदाता उम्मीदों पर खरा न उतरने वाले दलों, प्रतिनिधि और सरकारों को हराने या जिताने का अधिकार पाते हैं। मतदान की ताकत के जरिए ही अपनी पसंद के प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। डेमोक्रेटिक सिस्टम में सरकार को कंट्रोल करने की शक्ति जनता के हाथ में होती है। जनता के वोट से चुना गया प्रतिनिधि सरकार को कंट्रोल करता है और यही सरकार जनता की सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों पर काम करती है। यह सोचना कि एक अकेले वोट से क्या फर्क पड़ जाएगा, गलत है।
एक वोट की अहमियत का बड़ा उदाहरण अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी सरकार से ज्यादा और कहां मिल सकता है। 1996 में अटल के नेतृत्व में एनडीए सबसे बड़ा गठबंधन बनकर सामने आया था। प्रेसिडेंट ने सरकार बनाने का न्योता भी दिया। लेकिन त्रिशंकु लोकसभा में मात्र 13 दिन में अटल सरकार अपना बहुमत साबित नहीं कर पाई। बाद में कांग्रेस के सहयोग से संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी। दो प्रधानमंत्रियों को बदलने के बावजूद मोर्चा की सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। फिर 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और अटल बिहारी के नेतृत्व में एनडीए को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ।
जयललिता की जिद नहीं मानी, मुश्किल में आई सरकार
एनडीए में दर्जनभर से ज्यादा दल थे। सभी दलों का अपना एजेंडा था। अटल की दूसरी सरकार 13 महीने चली। जयललिता की वजह से 1999 में मुश्किल में फंस गई। दरअसल, जयललिता चाहती थीं कि केंद्र तमिलनाडु की सत्ता में काबिज एम करुणानिधि की द्रमुक सरकार को बर्खास्त कर दे। जब मांग पूरी नहीं हुई तो उन्होंने एनडीए सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। अटल सरकार के सामने विश्वासमत का संकट खड़ा हो गया। लोकसभा में विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाया और जोरदार बहस हुई। पहले तो मायावती ने अविश्वास प्रस्ताव पर वॉकआउट का फैसला किया। लगा कि बसपा की वजह से अटल सरकार विश्वासमत जीत जाएगी। पर बाद में मायावती ने अचानाक पलटी मारी और अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में हिस्सा लेने का फैसला किया।
ओडिशा के सीएम भी आए थे अटल सरकार गिराने
जो एक वोट के फर्क पर सवाल पूछते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि 17 अप्रैल 1999 के दिन अटल सरकार के पक्ष में 269 वोट जबकि विरोध में 270 वोट पड़े। अविश्वास प्रस्ताव में एनडीए की सरकार गिर गई। और जिस एक वोट से सरकार गिरी उसका किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह वोट ओडिशा के सीएम गिरधर गोमांग का था। गोमांग अविश्वास प्रस्ताव से दो महीने पहले ही मुख्यमंत्री बने थे। उन्हें 6 महीने के अंदर ओडिशा में विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य बनना था। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बावजूद वो लोकसभा सांसद थे उस वक्त। उस वक्त लोकसभा में सरकार और विपक्ष के लिए एक-एक वोट की अहमियत थी। लोकसभा सांसद की हैसियत से ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अविश्वास प्रस्ताव में हिस्सा लिया। तब फारुख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कोन्फ्रेंस भी एनडीए में शामिल थी। लेकिन पार्टी के सांसद सैफुद्दीन सोज़ ने व्हिप का उल्लंघन कर वोट डाला था। वाजपेयी की सरकार गिराने में सोज़ का वोट भी अहम था। और उनके वोट से सरकार गिर गई। हालांकि संसद भंग हुई मगर वाजपेयी कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में काम करते रहे।
मध्यावधि चुनाव से करोड़ों की लगी चपत
बाद में मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर एनडीए सरकार ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया और पूरे पांच साल तक सरकार चली भी। लेकिन अगर एक वोट से अटल सरकार नहीं गिरी होती तो देश को ख़र्चीले मध्यावधि चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता। पिछले साल 2019 के आम चुनाव पर 60 हजार करोड़ और 2015 के आम चुनाव पर 30 हजार करोड़ खर्च का अनुमान है। अंदाजा लगाना आसान है कि एक वोट की वजह से उस वक्त चुनाव पर सरकारी खजाने को कितने करोड़ खर्च की चपत लगी होगी।