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इंट्रेस्टिंग है यूसुफ खान से दिलीप कुमार बनने की कहानी, नाम बदलने के सख्त खिलाफ थे ट्रेजडी किंग
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बता दें कि दिलीप कुमार के पिता मुंबई में फलों का बिजनेस करते थे। शुरुआती दिनों में उन्होंने भी अपने फैमिली बिजनेस में हाथ बंटाना ठीक समझा। फिर एक दिन पिता के साथ कहा-सुनी हो गई और वे पुणे चले गए। दिलीप साहब की अंग्रेजी अच्छी थी इसलिए पुणे में उन्हें ब्रिटिस आर्मी कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई। वहीं, उन्होंने सैंडविच काउंटर खोला। लेकिन एक लड़ाई-झगड़े की वजह से काम बंद करना पड़ा।
दिलीप साहब मुंबई लौट आए और दोबारा पिता के बिजनेस में हाथ बंटाने लगे। फिर एक बार उन्हें अपने बिजनेस के सिलसिले में दादर जाना पड़ा। वे चर्च गेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तब उन्हें वहां जान पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर मसानी मिल गए। डॉक्टर मसानी बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे।
उन्होंने यूसुफ खान से कहा कि चलो क्या पता तुम्हें वहां कोई काम मिल जाए। पहले तो वे साथ जाने को तैयार नहीं हुए लेकिन किसी मूवी स्टूडियो में पहली बार देखने की तमन्ना के चलते वे तैयार हो गए। उन दिनों बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी हुआ करती थी। वे काफी मॉर्डन और दूर की सोच रखने वाली हीरोइन थी।
दिलीप कुमार ने अपनी बायोग्राफी 'द सबस्टैंस एंड द शैडो' में लिखा है कि जब वे लोग उनके केबिन में पहुंचे तब उन्हें देविका रानी एक बहुत ही शानदान महिला लगी। डॉक्टर मसानी ने दिलीप कुमार का परिचय कराते हुए देविका रानी से उनके लिए काम की बात की। देविका रानी ने उनसे कुछ सवाल पूछे।
इसके बाद देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा कि क्या तुम एक्टर बनोगे? और साथ-साथ उन्होंने उन्हें 1250 रुपए तनख्वाह पर नौकरी का ऑफर भी दिया। डॉक्टरी मसानी ने दिलीप कुमार को इसे स्वीकार कर लेने का इशारा किया था। लेकिन दिलीप साहब ने कहा कि उनके पास तो काम का अनुभव नहीं है। लेकिन देविका रानी के एक सवाल ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया। और वे बॉम्बे टॉकीज के लिए एक्टर बन गए।
बॉम्बे टॉकीज में शशिधर मुखर्जी और अशोक कुमार के अलावा दूसरे लोगों से वे एक्टिंग की बारीकियां सीखने लगे। एक सुबह जब वे स्टूडियो पहुंचे तो उन्हें संदेशा मिला कि देविका रानी ने उन्हें अपने केबिन में बुलाया है। उन्होंने कहा- यूसुफ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं। ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो। मेरे ख्याल से दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है। जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग में आया। तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा- यह सुनकर उनकी बोलती बंद हो गई थी और वे नई पहचान के लिए तैयार नहीं थे। फिर भी उन्होंने देविका रानी को कहा कि ये नाम तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या ऐसा करना वाकई जरूरी है? देविका रानी ने कहा कि ऐसा करना सही होगा।
वे देविका रानी के तर्कों से सहमत तो हो गए लेकिन उन्होंने इस पर विचार करने का वक्त मांगा। देविका रानी ने कहा कि ठीक है, विचार करके बताओ, लेकिन जल्दी बताना। फिर वे स्टूडियो में काम करने लगे लेकिन उनके दिमाग में दिलीप कुमार नाम ही चल रहा था। ऐसे में शशिधर मुखर्जी ने उनसे पूछ लिया कि किस सोच विचार में डूबे हो। उन्होंने पूरी बात शेयर की। तो शशिधर ने कहा- देविका ठीक कह रही है। और आखिरकार यूसुफ खान, दिलीप कुमार बनने को तैयार हो गए। और अमिय चक्रवर्ती के निर्देशन में फिल्म ज्वार भाटा की शूटिंग शुरू हो गई।
हालांकि, उन्हें पहली सफलता 1947 में आई मूवी 'जुगनू' से मिली थी। इसके बाद दीदार (1951) और देवदास (1955) जैसी फिल्मों में गंभीर भूमिकाओं के लिए मशहूर होने के कारण उन्हें ट्रेजडी किंग कहा जाने लगा। उन्होंने अपने करियर में एक से बढ़कर एक फिल्में दी। उन्होंने देवदास, नया दौर, राम और श्याम, गोपी, मशाल, विधाता, शक्ति, कर्मा, सौदागर, कोहिनूर, लीडर, गंगा-जमुना जैसी कई फिल्मों में काम किया।