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किसी ने सिर पर ढोया मैला तो किसी ने हल्दी के उत्पादन में लाई क्रांति, भारतीय नारीशक्ति की पहचान हैं ये महिलाएं

भोपाल. इस बार के नारी दिवस की थीम है- समानता और बराबरी- ‘बराबरी की दुनिया ही सक्षम दुनिया है’। और इस थीम पर पूरी तरह से फिट बैठती है भारत की वो महिलाएं जिन्होंने हर बंधन को तोड़कर, हर मुश्किल से लड़कर ना केवल अपने सपनों को साकार किया है बल्कि समाज और देश के विकास में भी अपना योगदान दिया है। सरकार ने इस साल 141 पद्म पुरस्कार दिए हैं और उन्हें पाने वालों में 34 महिलाएं हैं। चलिए आज नारी दिवस के अवसर पर इन पद्म पुरस्कार विजेताओं में से कुछ से मिलते हैं।  

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Asianet News Hindi
Published : Mar 08 2020, 09:31 PM IST| Updated : Mar 08 2020, 10:52 PM IST
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पद्म पुरस्कार पाने वाली सभी 34 महिलाओं ने अपने जीवन में काफी संघर्ष के बाद यह मुकाम हासिल किया है। ये महिलाएं सही मायने में भारत की नारी शक्ति की परिचायक हैं। इन महिलाओं के जज्बे को हम सलाम करते हैं और सभी के लिए ये औरतें प्रेरणा का स्त्रोत हैं।
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जिजीविषा, इच्छाशक्ति, कड़ी मेहनत और हौसले का जीता-जागता उदाहरण हैं, राजस्थान के अलवर जिले में रहने वाली उषा चौमर। मात्र 10 साल की उम्र में शादी होने के बाद जब वो अपने ससुराल पहुंची तो उन्हें सिर पर मैला ढोने के काम में लगा दिया गया। समाज में हर कोई उन्हें तिरस्कृत नज़रों से देखता था और उस काम से बचने का कोई रास्ता भी नहीं था। तब उषा की मुलाकात सुलभ इंटरनेशनल के डॉ बिन्देश्वर पाठक से हुई, जिनसे प्रेरणा लेकर उन्होंने अपने जैसी मैला ढोने वाली महिलाओं को एकत्र किया और जूट और पापड़ बनाने जैसे कामों की शुरूआत की। धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता बढ़ी और उषा मैला ढोने के उस काम से बाहर निकल आईं। यह उनकी कोशिशों का ही परिणाम है कि आज अलवर में कोई मैला ढोने वाली महिला नहीं रह गई है। आज उनके बच्चे स्कूल और कॉलेज में पढ़ रहे हैं, समाज में उनका मान सम्मान है और वो सुलभ इन्टरनेशनल की प्रेसिडेन्ट भी बन चुकी हैं।
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महाराष्ट्र की 56 वर्षीय आदिवासी महिला राहीबाई सोमा पोपोरे ने खुद से एग्रो बायो- डाइवर्सिटी के संरक्षण के बारे में सीखा है और आज यह अपने इस काम के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने लगभग पचास एकड़ की कृषि भूमि का संरक्षण किया है जहां ये 17 अलग अलग तरह की फसलें उगाती हैं। इन्होंने खाली पड़ी ज़मीनों पर जल संरक्षण करने के अपने तरीके विकसित किए हैं। पोपेरे, किसानों और छात्रों को सही बीज चुनने, मिट्टी को उपजाऊ रखने और कीड़ों से फसल को बचाने की ट्रेनिंग देती हैं। लोगों की सहायता करने के लिए यह स्वसहायता समूह भी चलाती हैं। इनकी इन्हीं खूबियों के चलते इन्हें ‘सीड मदर’ के नाम से जाना जाता है।
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81 साल की मूज़िक्कल पंकाजक्क्षी केरल की पारम्परिक कठपुतली कला नोक्कूविद्या पावाक्कली की अकेली जानकार हैं। यह बेहद मुश्किल कठपुतली कला है जिसे सीखने के लिए कड़ा प्रशिक्षण और बेहद मेहनत लगती है। इस कला में कलाकार को कठपुतलियों को अपने अपर लिप पर बैलेंस करना होता है और उनकी चालों को नियंत्रित करने के लिए धागों के साथ आंख की पुतलियों को भी लगातार चलाना पड़ता है। अपने स्टाइल और अलग तरीके से अंजाम दिए जाने के कारण यह एक दुर्लभ विद्या मानी जाती है। पंकाजक्क्षी पांच दशकों से इसे कर रही हैं। फिलहाल वो इस कठपुतसी विधा की एकमात्र जानकार हैं जो खत्म होने के कगार पर है। उन्हें इस विद्या को जीवित रखने के लिए पद्म पुरस्कार से नवाज़ा गया है।
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टीवी जगत की जानी मानी एक्ट्रेस सरिता जोशी भी इस साल पद्म पुरस्कार से सम्मानित हुई हैं। उन्हें एक्टिंग के क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए यह पुरस्कार दिया गया था। सरिता जोशी ने ढेरों टीवी सीरियल में काम किया है और सास के रोल के जरिए उन्होंने हर घर में अपनी पहचान बनाई है।
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भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल को भी इसी साल पद्म पुरस्कार से नवाजा गया। रानी ने भी हॉकी टीम की कमान संभालने से पहले अपने जीवन में काफी संघर्ष किया। एक प्लेयर बनने के बाद उन्होंने देश के लिए सराहनीय कार्य किया है, जिसके लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया।
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मेघालय की ट्रिनिटी सय्यू का नाम हल्दी की खेती के साथ जुड़ चुका है। सय्यू अपने गांव की 800 से ज़्यादा महिलाओं को जैविक खेती के ज़रिए सबसे शुद्ध और सबसे अच्छी किस्म की हल्दी की खेती करने का प्रशिक्षण दे चुकी हैं। इनके स्वंसहायता समूह की महिला किसान लाकाडोंग किस्म की हल्दी की खेती करती हैं। सय्यू जैयन्तिया हिल आदिवासी महिला हैं जहां महिला प्रधान समाज होता है। परिवार की सम्पत्ति महिलाओं को मिलती है। अपनी मां से मिली पारिवारिक सम्पत्ति और कृषि के गुणों का सय्यू बेहद कौशल के साथ संरक्षण कर रही हैं।
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इस साल पद्म पुरस्कार पाने वाली भागीरथी देवी रामनगर, पश्चिम चम्पारण से बिहार विधान सभा की सदस्या हैं। भागीरथी देवी पश्चिम चम्पारण के नरकटियागंज के एक महादलित परिवार से आती हैं। कभी यह नरकटियागंज के ब्लॉक विकास कार्यालय में मात्र 800 रूपए माह की तन्ख्वाह पर काम करने वाली सफाई कर्मचारी हुआ करती थीं। साइकिल पर घूम कर काम करने वाली भागीरथी देवी ने गांव की लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है। महिलाओं के संगठन बनाकर लोगों को घरेलू हिंसा और दलित हिंसा के बारे में जागरूक करने में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
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चिन्ना पिल्लई मदुरै के पास के एक छोटे से गांव से हैं। लेकिन छोटी जगह इनकी बड़ी सोच और बड़ी सफलता में बाधा नहीं बन पाई। चिन्ना ने अपने गांव की महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए आसपास के गांवों की महिलाओं के साथ मिलकर खुद का एक माइक्रोक्रेडिट बैंकिंग सिस्टम शुरू किया, जिसके ज़रिए ज़रूरतमन्दों को बेहद कम दर पर कर्ज़ दिया जाता है। उनकी इस छोटी से कोशिश ने बहुत सी महिलाओं को गरीबी से बाहर निकालकर आत्मनिर्भर बनने में भी मदद की। इन्हें 1999 में स्त्री शक्ति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। उस समय के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने चिन्ना अम्मा को पुरस्कार देते समय उनके पैर भी छुए थे। इन्हें इनके काम के लिए 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
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72 साल की तुलसी अम्मा मूलत: हलक्की आदिवासी हैं। इनके पास चिकित्सकीय पौधों से जुड़े ज्ञान का भण्डार है। किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा नहीं होने के बावजूद तुलसी अम्मा ने पर्यावरण को संरक्षित करने में अतुलनीय योगदान दिया है। तुलसी अम्मा अब तक 30,000 से ज़्यादा पौधे रोप चुकी हैं और फॉरेस्ट डिपार्टमेन्ट की नर्सरी की देखभाल करती हैं।

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