सार

वायनाड से लेकर विजयवाड़ा तक, ज़मीन धंसने की घटनाओं ने सबको चिंता में डाल दिया है। बारिश के मौसम में यह ख़तरा और बढ़ जाता है। आखिर क्यों धंस रही है ज़मीन और क्या हैं इसके कारण?

कल वायनाड, कल उत्तराखंड, आज विजयवाड़ा... जगह अलग-अलग लेकिन खतरा एक ही - ज़मीन धंसना। सिर्फ़ इन जगहों पर ही नहीं, हर साल बारिश के मौसम में कहीं न कहीं ज़मीन धंसने से जान-माल का नुकसान होता रहता है। इससे पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोग बारिश के मौसम में डर के साए में जीने को मजबूर हैं। ताज़ा मामला विजयवाड़ा का है जहाँ भारी बारिश के चलते ज़मीन धंसने से लोगों की जान जा चुकी है। हाल के दिनों में ज़मीन धंसने की घटनाएं बढ़ी हैं, जो भारत के लोगों, खासकर पहाड़ी इलाकों में रहने वालों के लिए चिंता का विषय है। 

लेकिन आखिर ज़मीन क्यों धंसती है? सदियों से लोग पहाड़ी इलाकों में रहते आए हैं, तो फिर अचानक ये प्राकृतिक आपदा क्यों आने लगी? क्या ये कुदरती है या इंसान के कामों का नतीजा? बारिश के मौसम में ही ऐसा क्यों होता है? आइए जानते हैं।  

ज़मीन धंसना क्या होता है?

जंगल, पहाड़, पर्वत, समुद्र, नदियां - ये सब कुदरत के तोफ़े हैं इंसान के लिए। लेकिन इंसान अपने स्वार्थ के लिए कुदरत को तबाह करता जा रहा है। नतीजा ये कि जो कुदरत हमारी रक्षा करती थी, वही अब जानलेवा बनती जा रही है। प्राकृतिक आपदाएं भारी तबाही मचा रही हैं। ऐसी ही एक आपदा है ज़मीन धंसना, जिसकी ख़बरें आजकल आम हैं। कुछ दिन पहले वायनाड में तबाही मचाने वाली ज़मीन धंसने की घटना ने अब विजयवाड़ा में भी कई लोगों की जान ले ली है। 

पहाड़ों पर मौजूद चट्टानों और मिट्टी का, या फिर हिमालय जैसे ठंडे इलाकों में बर्फ का नीचे की ओर खिसकना ही ज़मीन धंसना कहलाता है। ये बारिश के मौसम में ज़्यादा होता है। कई कारणों से पहाड़ों पर की मिट्टी और चट्टानें कमज़ोर हो जाती हैं और बारिश के पानी के साथ अचानक नीचे की ओर बहने लगती हैं। कई बार ये मिट्टी और पानी का सैलाब रिहायशी इलाकों को पूरी तरह तबाह कर देता है, जिससे जान-माल का भारी नुकसान होता है। 

पहाड़ी इलाकों वाले राज्य जैसे हिमालय, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम में ये घटनाएं ज़्यादा होती हैं। लेकिन आजकल इंसानी गतिविधियों के चलते पहाड़ी इलाकों में कहीं भी ज़मीन धंस सकती है। वायनाड और विजयवाड़ा की घटनाएं इसका उदाहरण हैं। 

ज़मीन धंसने के कारण : 

ज़मीन धंसने का मुख्य कारण कुदरती बदलाव हैं। लेकिन इनमें से कुछ तो प्राकृतिक रूप से होते हैं, जबकि ज़्यादातर इंसान की वजह से। 

प्राकृतिक कारण: पहाड़ी इलाकों में भारी बारिश होने पर मिट्टी बह जाती है। इससे पहाड़ों की ढलानों पर की मिट्टी कमज़ोर हो जाती है। लंबे समय तक ऐसा होने पर मिट्टी और चट्टानें अचानक नीचे की ओर खिसक जाती हैं। 

कई बार पहाड़ी ढलानों पर चट्टानें बहुत ही कमज़ोर तरीके से जमी होती हैं। बारिश होने पर पानी के तेज बहाव के साथ ये चट्टानें भी नीचे गिर जाती हैं। भूकंप के झटकों से भी ज़मीन धंस सकती है। इसके अलावा कुछ और प्राकृतिक कारण भी ज़मीन धंसने की वजह बनते हैं। 

मानवीय कारण : 

इंसान अपनी ज़िंदगी को आरामदायक बनाने के लिए कुदरत को नुकसान पहुंचा रहा है। इसमें सबसे बड़ा कारण है पेड़ों की कटाई करके घर बनाना। इसके अलावा खनन और उत्खनन के नाम पर ज़मीन को बेतरतीब तरीके से खोदना भी ज़मीन धंसने का कारण बनता है। पहाड़ी इलाकों में पेड़ों की कटाई से मिट्टी कमज़ोर हो जाती है और ज़मीन धंसने का खतरा बढ़ जाता है। ज़मीन में गहरे गड्ढे खोदना भी इसका एक कारण है। 

ज़मीन धंसने से होने वाले नुकसान :

ज़मीन धंसने से आजकल जान-माल का भारी नुकसान हो रहा है। पहाड़ी इलाकों में बने घरों में अचानक मिट्टी और कीचड़ का सैलाब घुस जाता है, जिसमें इंसान और जानवर फंसकर दम तोड़ देते हैं। संपत्ति का भी भारी नुकसान होता है। 

ज़मीन धंसने से फसलें भी बर्बाद हो जाती हैं। खासकर पहाड़ी इलाकों में उगाई जाने वाली कॉफ़ी की फसल को भारी नुकसान होता है। दूसरी फसलों को भी नुकसान होता है, जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। 

घाट रोड पर अक्सर ज़मीन धंसने से आवाजाही ठप हो जाती है। इससे लोगों को आने-जाने में दिक्कत होती है और नुकसान उठाना पड़ता है। चट्टानें गिरने से सड़कें भी टूट जाती हैं। 
 
कई बार ज़मीन धंसने से पानी का बहाव रुक जाता है। इससे पानी का रुख बदल जाता है और वो रिहायशी इलाकों और खेतों में घुस जाता है। इससे भी जान-माल का नुकसान होता है। 

 रोकथाम के उपाय : 

अगर हम कुदरत को नुकसान पहुंचाना बंद कर दें, तो कई आपदाओं से बचा जा सकता है। खासकर पहाड़ी इलाकों में पेड़ों की कटाई रोकनी होगी। साथ ही नए पेड़ लगाने होंगे। इससे ज़मीन धंसने के खतरे को कम किया जा सकता है। 

पहाड़ी इलाकों में निर्माण कार्य करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। निर्माण कार्य शुरू करने से पहले ये सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वो जगह उसके लिए सही है या नहीं। पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही निर्माण कार्य शुरू करना चाहिए। 

पहाड़ों और पर्वतों पर प्राकृतिक जल स्रोतों के मार्ग में रुकावट नहीं डालनी चाहिए। ऐसा करने से भविष्य में खतरा पैदा हो सकता है।