सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर 2025 के आदेश ने अरावली में खनन को बढ़ावा नहीं दिया, बल्कि नए खनन पट्टों पर रोक और सख्त नियमन तय किया। 100 मीटर मानक केवल मैपिंग टूल है। सोशल मीडिया पर 90% क्षेत्र खुलने का दावा भ्रामक है। असली चुनौती पारदर्शी कार्यान्वयन है।

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर 2025 के आदेश के बाद अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सोशल मीडिया पर #SaveAravalli कैम्पेन के माध्यम से व्यापक जनचिंता सामने आई है। अरावली के ईकोसिस्टम महत्व को देखते हुए यह चिंता स्वाभाविक है। लेकिन यह धारणा कि सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरणीय संरक्षण को कमजोर किया है या बड़े पैमाने पर खनन का मार्ग प्रशस्त किया है, कानूनी रूप से गलत है। यह न्यायालय के आदेश के वास्तविक उद्देश्य को धुंधला करती है।

किसी तरह के खनन को बढ़ावा नहीं देता सुप्रीम कोर्ट का आदेश

हकीकत में यह आदेश किसी भी प्रकार से खनन को बढ़ावा नहीं देता। इसके विपरीत, सर्वोच्च न्यायालय ने रेगुलेटरी कंट्रोल को और सख्त किया है। आदेश के तहत अरावली क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर पूरी तरह से रोक लगाई गई है, जब तक कि पूरे परिदृश्य के लिए एक सतत खनन प्रबंधन योजना (Management Plan for Sustainable Mining – MPSM) तैयार नहीं हो जाती। यह योजना भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (ICFRE) द्वारा पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन, वैज्ञानिक एवं संस्थागत प्रक्रिया के माध्यम से तैयार की जानी है। इसे किसी भी दृष्टि से खनन समर्थक कदम नहीं कहा जा सकता।

100 मीटर वाला पैमाना व्यापक रूप से गलत समझा गया

इस आदेश का सबसे अधिक विवादित पहलू “स्थानीय सापेक्ष ऊंचाई से 100 मीटर” का पैमाना व्यापक रूप से गलत समझा गया है। यह ईकोसिस्टम इवैल्युएशन नहीं, बल्कि खनन नियमन के लिए एक ऑपरेशनल मैपिंग टूल है। अतीत में अलग-अलग राज्यों और विभागों द्वारा अरावली की भिन्न-भिन्न और अस्पष्ट परिभाषाओं के चलते अवैध खनन को बढ़ावा मिला। एक समान, मानचित्र-वेरिफिकेशन योग्य मानदंड का उद्देश्य इसी प्रशासनिक अस्पष्टता को खत्म करना है। यह समझना भी जरूरी है कि खनन नियमन के लिए अपनाई गई परिभाषा अन्य पर्यावरणीय सुरक्षा व्यवस्थाओं को समाप्त नहीं करती। वन भूमि, वन्यजीव गलियारे, रिज क्षेत्र, पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) तथा संरक्षित क्षेत्र आज भी अपने-अपने वैधानिक कानूनों के अंतर्गत संरक्षित हैं। यह कहना कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले सभी क्षेत्र अब संरक्षण से बाहर हो गए हैं, तथ्यात्मक रूप से गलत है।

सोशल मीडिया पर फैलाया जा रहा झूठ

सोशल मीडिया पर सबसे अधिक प्रचारित दावा कि “अरावली का 90 प्रतिशत क्षेत्र खनन के लिए खोल दिया गया है”, कोई न्यायिक निष्कर्ष नहीं, बल्कि अनुमान पर आधारित प्रचार है। वास्तविक सीमांकन भारतीय सर्वेक्षण विभाग (Survey of India) द्वारा किए जाने वाले मानचित्रण तथा MPSM में निर्धारित जोनिंग पर निर्भर करेगा। इन प्रक्रियाओं के पूर्ण होने से पहले ऐसे संख्यात्मक दावे अटकलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं हैं। कुछ आलोचक यह भी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 2010 के आसपास दिए गए अपने पूर्व आदेशों से विचलन किया है। किंतु न्यायालय परिस्थितियों के अनुरूप फैसले करता है। वर्ष 2025 में न्यायालय के समक्ष कई राज्यों में फैला अवैध खनन और कमजोर प्रवर्तन की समस्या थी। ऐसे में एक समान परिभाषा, नए पट्टों पर रोक और सेनारियो लेवल योजना का निर्देश नियमन को मजबूत करने का प्रयास है, न कि उसे कमजोर करने का।

अरावली के लिए कोर्ट हमेशा सरंक्षणपरक रहा

इतिहास भी इसी दृष्टिकोण की पुष्टि करता है। एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली और रिज क्षेत्र में खनन तथा भूजल दोहन पर रोक लगाई थी, यह स्वीकार करते हुए कि यह क्षेत्र एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक अवरोध है। न्यायालय की संस्थागत प्रवृत्ति अरावली के संदर्भ में सदैव संरक्षणपरक रही है। अंततः, यह आशंका कि यह आदेश निर्माण गतिविधियों को अनियंत्रित कर देगा, विभिन्न कानूनी क्षेत्रों को आपस में गलत तरीके से जोड़ती है। भूमि उपयोग नियोजन, वन स्वीकृतियां, ESZ मानदंड और पर्यावरणीय प्रभाव आकलन आज भी पहले की तरह ही लागू हैं। नवंबर का आदेश इन व्यवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं करता। अब असली परीक्षा नारेबाजी में नहीं, बल्कि कार्यान्वयन में है। पारदर्शी मानचित्रण, सुदृढ़ जोनिंग और कड़े प्रवर्तन से ही अरावली का वास्तविक संरक्षण सुनिश्चित होगा। भ्रामक सूचनाएं, चाहे वे सद्भावना से ही क्यों न फैलाई गई हों, इस जवाबदेही से ध्यान भटकाने का जोखिम रखती हैं।