सार

भाजपा के साथ अकाली दल का 1997 में गठबंधन हुआ, 22 साल से यह अटूट गठबंधन  पिछले साल तक चलता रहा। 1999 लोकसभा चुनाव 2002 और 2017 के खराब प्रदर्शन के बाद भी गठबंधन को टूटने नहीं दिया।

पंजाब से मनोज ठाकुर की रिपोर्ट
चंडीगढ़ : बात अक्टूबर 2014 की है, हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा (BJP) ने कांग्रेस (Congress) को हरा कर बहुमत हासिल कर लिया। अभी मनोहर लाल खट्टर (Manohar Lal Khattar) को हरियाणा (Haryana) का सीएम घोषित नहीं किया गया। चुनाव जीतने के बाद वह चंडीगढ़ में पंजाब भाजपा के कार्यालय पहुंचे। यहां पंजाब भाजपा के नेताओं ने उनका जोरदार स्वागत किया। सब खुश थे, लेकिन मन में एक टीस भी थी। वह टीस थी पंजाब में भाजपा क्यों अकेले अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ रही।

जनाधार मजबूत हो, इसलिए अकेले चलने की रणनीति
पंजाब में भाजपा के स्थानीय नेताओं की दिली इच्छा थी कि पंजाब में उनकी पार्टी को शिरोमणि अकाली दल (Shiromani Akali Dal) से अलग होकर अपना आधार मजबूत करना चाहिए। स्थानीय नेताओं के तमाम दबावों के बाद भी पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अकाली दल से अलग नहीं हो रहा था। भाजपा के साथ अकाली दल का 1997 में गठबंधन हुआ, 22 साल से यह अटूट गठबंधन  पिछले साल तक चलता रहा। 1999 लोकसभा चुनाव 2002 और 2017 के खराब प्रदर्शन के बाद भी गठबंधन को टूटने नहीं दिया।

कृषि कानून वापस लेकिन नहीं लौटा अकाली दल
पंजाब की कुल 117 सीटों में से भाजपा को मात्र 23 सीट ही मिलती रही। पंजाब भाजपा के नेताओं की टीस थी कि वह यहां काम करते हैं, इसका लाभ अकाली दल को मिलता है। पिछले साल पंजाब भाजपा नेताओं की यह टीस उस वक्त खत्म हो गई, जब अकाली दल ने खुद ही तीन कृषि कानूनों पर विरोध जताते हुए भाजपा से अलग होने का ऐलान कर दिया। तीन कृषि कानून वापस हुए। भाजपा को उम्मीद थी कि अकाली दल वापस आएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

चुनौती को यूं बदला मौके में
यह भाजपा के लिए मुश्किल वक्त था। क्योंकि तीन कृषि कानूनों पर सबसे ज्यादा विरोध भाजपा का पंजाब में हो रहा था। स्थिति यह थी कि नेता व कार्यकर्ताओं किसान गांवों तक में  घुसने नहीं दे रहे थे। पीएम नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) जब पंजाब में चुनाव से पहले एक जनसभा को संबोधित करने आ रहे थे तो किसानों ने उनका रास्ता रोक लिया। सुरक्षा में चूक की वजह से पीएम को वापस लौटना पड़ा। पार्टी की स्थिति नाजुक थी। लेकिन इसके बाद वक्त तेजी से पलटा। भाजपा के प्रति मतदाताओं और नेताओं का रुझान तेजी से बढ़ने लगा। स्थिति यह हो गई कि पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) पंजाब लोक कांग्रेस का गठबंधन भाजपा के साथ कर रहे थे। 

अमरिंदर बीजेपी के साथ तो साथ आए और हाथ
कैप्टन बीजेपी के साथ आए तो कई बडे़ नेता टूट कर भाजपा में आ गए। जालधंर कैंट में अकाली दल के सर्बजीत सिंह मक्कड़, कांग्रेस के मंत्री राणा गुरमीत सिंह सोढ़ी फिरोजपुर से मोगा से हरजोत कंवल समेत कई बड़े चेहरों ने पार्टी को मजबूती प्रदान की। सुखदेव सिंह ढींढसा की शिरोमणि अकाली दल संयुक्त ने भी भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया। इस तरह से जो पार्टी कभी अकाली दल के पीछे रहती थी, पहली बार पंजाब में खुद ड्राइविंग सीट पर थी। भाजपा ने 65 सीटों पर कैप्टन की पार्टी संयुक्त पंजाब कांग्रेस ने 37 तो संयुक्त अकाली दल ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा था।

क्यों नहीं सफल रहा गठबंधन
1 - कैप्टन ज्यादा असरकारक साबित नहीं हो पाए
उम्मीद थी कि कैप्टन कांग्रेस में बड़ी संधे लगा देंगे। लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो पाए। चन्नी ने कांग्रेस को अच्छे से संभाल लिया। भाजपा को कांग्रेस के वह नेता मिल पाए जिन्हें टिकट नहीं मिला । दूसरा कैप्टन मतदाता में भी सेंध लगाने में भी ज्यादा कामयाब नहीं रहे। इस बार उनकी कार्यप्रणाली से मतदाता खासे नाराज रहे। स्थिति यह थी कि कैप्टन को  स्वयं अपनी सीट पर भारी मशक्कत करनी पड़ी।

2 - बंट गया हिंदू वोटर
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा ने जबरदस्त तरीके से चुनाव प्रचार किया। लेकिन वह सरकार बनाना तो दूर की बात, 65 सीट पर लड़ने के बावजूद दो सीट पर जीत हासिल कर पाई। इसकी बड़ी वजह यह है कि पार्टी हिंदू वोटर को भी साधने में सफल नहीं हुई। पंजाब के राजनीतिक समीक्षक सुखदेव सिंह चीमा का तर्क है कि  पंजाब में 39 प्रतिशत हिंदू वोटर है। लेकिन अभी तक भाजपा क्योंकि अकाली दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ती रही है। इस वजह से पार्टी मतदाता के बीच अपना आधार नहीं बना पाई।

3 - बीजेपी जिन मुद्दों पर प्ले करती है, यहां वह चले नहीं
भाजपा कानून व्यवस्था, राष्ट्रवाद और हिंदू मुस्लिम मुद्दों पर ज्यादा फोकस करती रही है। लेकिन पंजाब में यह मुद्दे चल नहीं पाए। क्योंकि पंजाब में इसे लेकर भाजपा इतनी ज्यादा आक्रामक नहीं रही। पंजाब में यूं भी सिखों का प्रभाव ज्यादा है। मुस्लिम आबादी यहां 1.9 प्रतिशत के आस पास है। राष्ट्रवाद का मुद्दा भी ज्यादा नहीं चला। पाकिस्तान के साथ तनाव को लेकर भी पंजाब विधानसभा में मतदाता ज्यादा प्रभावी नहीं हुआ।

4 - अकाली दल के पीछे लगने का नुकसान भी हुआ
भाजपा अकाली दल के भरोसे चल रही थी। यहां पार्टी को खुल कर काम करने का मौका नहीं मिला। अकाली दल भाजपा को तीन सीट और विधानसभा की 23 सीट ही देते रहे हैं। इस वजह से पार्टी अमृतसर और गुरदासपुर तक सिमट कर रह गई। अकाली दल के साथ होने की वजह से पार्टी ने अपने विस्तार की ओर ध्यान नहीं दिया। इस वजह से भी पार्टी सियासी तौर पर पंजाब में मजबूत नहीं हो पाई। इसका असर इस बार के विधानसभा चुनाव में भी नजर आ रहा है।

5 - समय कम मिला, अंत तक अकाली दल गठबंधन करेगा, इस संशय में रही भाजपा
तीन कृषि कानूनों की वजह से भाजपा एक साल तक तो पंजाब में काम ही नहीं कर पाई। फिर कानून वापस लिए तो यह उम्मीद रही कि शायद अकाली दल गठबंधन कर ले। इसका असर यह निकला कि पार्टी को जितनी  तेजी से चुनाव की तैयारी करनी थी, वह नहीं कर पाए। हालांकि पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने पंजाब में खुद ताकत लगाई। जनसमर्थन मिला भी, लेकिन कामयाबी नहीं मिली।

भाजपा की इस हार में भी जीत है...
क्योंकि भाजपा पहली बार पंजाब में 65 सीटों पर चुनाव लड़ी है। पार्टी ने खुद को पंजाब में खड़ा किया है। सभी सीटों पर उपस्थिति दर्ज कराई है। हिंदू वोटरों को अब एक बड़ा विकल्प मिल गया है। इस वजह से पार्टी आने वाले समय में बेहतर करने की स्थिति है। जानकार तो यहां तक बोल रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में ही भाजपा की मजबूती सामने आने लगेगी। भाजपा पंजाब की राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाने जा रही है। यह भाजपा की शुरूआत भर है।

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