उधमसिंह नगर की महिलाओं ने 2000 साल पुरानी मूंज क्राफ्ट को नई पहचान दी है। 300 से अधिक महिलाएं इस हस्तकला से आत्मनिर्भर बनीं। जर्मनी तक उत्पादों का निर्यात हो रहा है और पीएम मोदी भी इस पहल की सराहना कर चुके हैं।

वाराणसी/उधमसिंह नगर: कभी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी मूंज क्राफ्ट आज न सिर्फ गांवों की पहचान बन चुकी है, बल्कि विदेशों तक भारत की पारंपरिक हस्तकला का परचम भी लहरा रही है। उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले की आदिवासी और ग्रामीण महिलाएं इस करीब 2000 साल पुरानी कला को नए युग की जरूरतों से जोड़कर विश्व मंच तक पहुंचा रही हैं। इस कला को पुनर्जीवित करने में रीता देवी की भूमिका केंद्रीय मानी जा रही है, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सम्मानित कर चुके हैं।

दादी-नानी से सीखी कला को बनाया आत्मनिर्भरता का आधार

मूंज क्राफ्ट वह पारंपरिक कला है, जो पीढ़ियों से दादी-नानी के जरिए घरों तक सीमित थी। समय के साथ यह कला लुप्त होने लगी, लेकिन उधमसिंह नगर के खटीमा ब्लॉक स्थित ग्राम मूलधन की रहने वाली रीता देवी ने इसे फिर से जीवित करने का संकल्प लिया। वर्ष 2002 में उन्होंने एक स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से मूंज क्राफ्ट का काम शुरू किया। शुरुआत में उनके साथ केवल 10 महिलाएं थीं, लेकिन आज 9-10 गांवों की 300 से अधिक महिलाएं इससे जुड़कर रोजगार पा रही हैं।

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गांव से ग्लोबल मार्केट तक मूंज क्राफ्ट

रीता देवी के प्रयासों से मूंज क्राफ्ट अब केवल स्थानीय बाजार तक सीमित नहीं है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, ओडिशा समेत देश के कई राज्यों में इसकी प्रदर्शनी लगती है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर में इन दिनों आदिवासी बाजार मूंज हस्तकला से गुलजार है।इतना ही नहीं, दिल्ली, देहरादून सहित कई बड़े शहरों के साथ-साथ जर्मनी जैसे देशों से भी मूंज क्राफ्ट के उत्पादों के ऑर्डर मिल रहे हैं।

2014 के बाद बदली किस्मत, सरकारी योजनाओं से मिला सहारा

रीता देवी बताती हैं कि शुरुआती वर्षों में सरकारी अधिकारी तो आते थे, लेकिन बाजार से खास प्रतिक्रिया नहीं मिलती थी। वर्ष 2014 में पहली बार उन्हें प्रदर्शनी में स्टॉल लगाने का मौका मिला। इसके बाद मोदी सरकार की विभिन्न योजनाओं से मूंज क्राफ्ट को जोड़ा गया। उत्तर प्रदेश सरकार की ‘वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट’ योजना के तहत मूंज हस्तकला को GI (ग्लोबल आइडेंटिटी) प्रोडक्ट के रूप में मान्यता मिली, जिससे इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलने का रास्ता खुला।

महिलाओं की बदली जिंदगी, गांवों में लौटी रौनक

इस पहल से गांवों की तस्वीर बदल गई है। रीता देवी कहती हैं कि पहले महिलाओं को घर खर्च के लिए परिवार पर निर्भर रहना पड़ता था, लेकिन अब वे खुद आत्मनिर्भर बन चुकी हैं। मूंज क्राफ्ट से पेन होल्डर, रिंग, बच्चों के खिलौने, ज्वेलरी, सजावटी सामान समेत कई आधुनिक उपयोग के उत्पाद बनाए जा रहे हैं। इससे महिलाओं की आय बढ़ी है और गांवों में आर्थिक गतिविधियां तेज हुई हैं।

पीएम मोदी से मुलाकात, बढ़ा आत्मविश्वास

रीता देवी ने बताया कि पिछले वर्ष दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मूंज हस्तकला से जुड़ी महिलाओं से मुलाकात की थी। पीएम मोदी ने उनके कार्य की सराहना करते हुए कहा था कि हैंडीक्राफ्ट से जुड़ी महिलाओं को आगे लाना जरूरी है। इस दौरान रीता देवी ने प्रधानमंत्री को मूंज क्राफ्ट से बना एक विशेष उत्पाद भेंट किया, जिसे उन्होंने काफी पसंद किया।

कुश की कमी बनी चुनौती, मेहनत के मुकाबले नहीं मिल रहा सही दाम

मूंज क्राफ्ट कुश (सरपत) से बनता है, जो बंजर जमीन, खेतों, तालाबों, नदी किनारे और जंगलों में पाया जाता है। पहले यह आसपास ही मिल जाता था, लेकिन अब इसके लिए महिलाओं को 12 से 15 किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है। कुश को इकट्ठा कर साफ करना, सुखाना और सालभर के लिए सुरक्षित रखना एक लंबी प्रक्रिया है। एक उत्पाद बनाने में 2 से 3 दिन का समय लग जाता है। इसके बावजूद कारीगरों को बाजार में उनकी मेहनत के अनुसार दाम नहीं मिल पा रहा है। यदि किसी उत्पाद की कीमत 500 रुपये है, तो ग्राहक 300 रुपये तक में लेने की कोशिश करते हैं।

परंपरा और आधुनिकता का अनूठा संगम

अनिता देवी, जो उधमसिंह नगर की रहने वाली हैं, बताती हैं कि यह काम उनके पूर्वजों से चला आ रहा था, जो बाद में खत्म हो गया था। अब इसे नई पहचान दी जा रही है। परंपरागत कला के साथ आधुनिक डिजाइन जोड़कर बाजार की मांग को पूरा किया जा रहा है। सरकार और विभिन्न एनजीओ भी इस दिशा में मदद कर रहे हैं।

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