सार
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के लिए मायावती मुस्लिम वोटबैंक को साधने की कोशिश में जुटी हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मोदी सरकार की नीतियों ने जिस तरह से देश के अंतिम आदमी तक पहुंचने की कोशिश की है, उससे दलित/पिछड़ा वर्ग मुख्यधारा में आया है और इसी वजह से वह मायावती का साथ छोड़ बीजेपी की तरफ जा रहा है।
दिव्या गौरव त्रिपाठी
लखनऊ: बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) अब अपने कोर वोट बैंक यानी दलितों (Dalit Vote Bank) से हटकर दूसरी जातियों को लुभाने में जुटी है। पहले सतीश चंद्र मिश्रा (Satish Chandra Mishra) के माध्यम से माया ने ब्राह्मणों (Brahmin Vote Bank) को अपने साथ मिलाने की कोशिश की तो अब पहली लिस्ट के बाद ऐसा लग रहा है कि माया मुस्लिम वोटबैंक (Muslim Vote Bank) पर डोरे डाल रही हैं। बीते शनिवार को उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव (UP Vidhansabha Chunav 2022) के लिए पहले चरण के मतदान वाली विधानसभा सीटों पर पार्टी के उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी हुई थी। इस लिस्ट में एक चौथाई उम्मीदवार मुस्लिम थे।
बसपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ब्रज क्षेत्र की जिन 53 सीटों पर उम्मीदवार घोषित किए हैं, उनमें 14 मुस्लिम (26 प्रतिशत) उम्मीदवार शामिल हैं। पहले चरण के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल मुजफ्फरनगर जिले में जिन छह सीटों के लिये बसपा ने अपने उम्मीदवार घोषित किये, उनमें चार सीटों (बुढ़ाना, चरथावल, खतौली और मीरापुर) पर मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे हैं। वहीं, मेरठ जिले में सिवाल खास और मेरठ दक्षिण, बागपत जिले में छपरौली, गाजियाबाद जिले में लोनी और मुरादनगर, हापुड़ जिले में धौलाना और गढ़मुक्तेश्वर, अलीगढ़ जिले में कोल और अलीगढ़ तथा बुलंदशहर जिले में शिकारपुर सीट पर भी मुस्लिम प्रत्याशी घोषित किए हैं।
मायावती से क्यों छिटक रहा दलित वोट बैंक
यूपी की राजनीति को लंबे समय से कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय त्रिपाठी कहते हैं कि मायावती का कोर वोट बैंक बसपा से दूर होता जा रहा है। अजय के मुताबिक, 'मायावती की बहुजन समाज पार्टी का कोर वोट बैंक वह था जो मुख्यधारा से थोड़ी दूर था। बसपा की पूरी राजनीति 2012 से पहले तक इसी वोटबैंक के इर्दगिर्द घूम रही थी। लेकिन 2014 के बाद से यह वोट बैंक उनके पास से फिसलने लगा। बीजेपी की मोदी सरकार की नीतियों ने सीधे तौर पर इस तबके के लोगों को छूने की कोशिश की। प्रधानमंत्री आवास योजना, जनधन योजना, मुद्रा योजना, उज्जवला योजना, अटल पेंशन योजना, सुकन्या समृद्धि योजना जैसी सैकड़ों योजनाओं ने ऐसे लोगों को मुख्यधारा में फिर से लाने की कोशिश की। जिसकी वजह से उस वोटबैंक का बड़ा हिस्सा माया से छिटककर बीजेपी की तरफ चला गया।'
'सोशल मीडिया का भी रहा अहम रोल'
अजय त्रिपाठी के मुताबिक, '2013-14 के आसपास सोशल मीडिया ऐक्टिव मोड में आ चुका था। अब लोग जनसरोकार के मुद्दों से सीधे तौर पर जुड़ रहे थे। 2015-16 के बाद तो इंटरनेट भी सस्ता होने लगा और गांव के लोग भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने लगे। इस दौर में किसी को भ्रम में रखना, या जाति-वर्ग के नाम पर भेदभाव जैसी चीजों में भारी कमी आई।' अजय के मुताबिक, सरकार की व्यवस्थाओं और योजनाओं का लाभ जब उस वर्ग तक सीधे पहुंचा तो उसे समझ में आने लगा कि जातिगत वोटिंग से बेहतर है कि निजी फायदे को ध्यान में रखा जाए।
2014 में ही हो गया था माया को 'सच' का अहसास!
एशियानेट हिंदी से खास बातचीत में अजय ने कहा, 'माया को अपने वोटबैंक के खिसकने का अहसास 2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों से ही हो गया था। इसके बाद 2017 और फिर 2019 के चुनावी नतीजों ने माया के मन में अपने कोर वोटबैंक को लेकर बना भ्रम भी दूर कर दिया। अब माया को एक नए वोटबैंक की जरूरत थी। बीजेपी जहां खुले तौर पर सबके साथ और सबके विकास के साथ हिंदुत्व का कार्ड खेल रही थी, वहीं सपा और कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर जा रही थीं। ऐसे में माया को सबसे सेफ मुस्लिम वोटर्स को साधना लगा।' हालांकि अजय ने दावा किया कि मुस्लिम वोट को माया नहीं साध पाएंगी और 2022 के चुनावी नतीजे इस बात को प्रमाणित भी कर देंगे।