सार

समस्त कलाओं का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व होता है। कवि हो, शायर हो, पेंटर हो, खिलाड़ी हो, गायक हो या वादक हो, किसी भी श्रेणी का कलाकार हो उसके पास जो प्रतिभा होती है, वह उसे नैसर्गिक रूप से मिलती है। साहित्यकारों-कलाकारों को यूपी की नई सरकार से क्या-2 उम्मीदें हैं।  इस बारे में यश भारती अवार्डी विष्णु सक्सेना से समझते है। 

लखनऊ: समस्त कलाओं का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व होता है। कवि हो, शायर हो, पेंटर हो, खिलाड़ी हो, गायक हो या वादक हो, किसी भी श्रेणी का कलाकार हो उसके पास जो प्रतिभा होती है, वह उसे नैसर्गिक रूप से मिलती है। जब प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त है तो ईश्वर उसे किसी धर्म या जाति के बंधन में नहीं बांधता अपितु जिसको पात्र समझता है, उसे वह उस कला से परिपूर्ण कर देता है। फिर वह कलाकार समाज में अपनी कला का प्रदर्शन कर समाज के लिए अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। अब यह समाज के ऊपर निर्भर है कि वह उस कलाकार की कला का किस रूप में ध्यान रखता है उसे सम्मानित करता है या उसे उसके भाग्य के भरोसे छोड़ देता है।

इतिहास बताता है कि पुराने समय में राजा-महाराजा, बादशाह अपने दरबार में कलाकारों का संरक्षण करते थे। उनका मानना था कि कलाकार समाज का आईना होते हैं समाज में क्या घटित हो रहा है, वह दरबार मे सिंहासन पर बैठने वाले की अपेक्षा बेहतर तरीके से बता सकते हैं, अगर वह अपनी कला के माध्यम से सामने रखेंगे तो वह बहुत प्रभावी होगा। अतः जो कुशल राजा होते थे उन्हें दरबारी संरक्षण देकर उनको परिवारिक चिंताओं से मुक्त करके उनसे अपने राजकाज को सुचारू रखने में मदद लेते रहते थे। 

समय बदलते ही सोच में आया परिवर्तन
समय बदला तो राजाओं की सोच में भी परिवर्तन आया। उन्होंने कलाओं को मनोरंजन की विषय वस्तु समझ लिया। कलाओं और कलाकारों को उचित आश्रय और सम्मान न मिलने के कारण उन पर संकट उत्पन्न हो गया। फिर कलाकारों ने सत्ता के गुणगान गाना आरंभ कर दिया। दरबारों में निष्पक्ष कलाकारों के स्थान पर चारण और भाट रखे जाने लगे। नए दौर में राज काज के रूप में सरकारें बनने लगीं। जाति धर्म के नाम पर चुनकर आने वाली सरकारों के निजी स्वार्थ पनपने लगे। जिन कलाकारों ने उनकी प्रशस्ति में विरुदावलियाँ गायीं, उनको सम्मानित किया जाने लगा और कला की सच्ची परख कहीं बहुत पीछे छूटने लगी, असली कलाकार जो अपने अंदर स्वाभिमान रखते थे। उन्होंने अपने परिवार का जीवन यापन करने के लिए अपनी कला को बेचना आरंभ करना पड़ा।

परिणाम ये हुआ कि मार्केटिंग के इस बदलते दौर में सामान्य कलाकार तो अच्छे दामों में बिकने लगे लेकिन सच्चे और अच्छे कलाकार अपनी पहचान बनाने के लिए भी संघर्ष करते ही नजर आए। जिनकी अच्छी पैठ थी उन्हें बड़े-बड़े सामानों और पुरस्कारों से सम्मानित कर दिया गया लेकिन स्वाभिमानी कलाकार अपनी पहचान भी ना बना सके। धीरे धीरे वह भुखमरी के कगार पर आ गए पेट पालने के लिए उन्होंने दूसरे धंधों का सहारा ले लिया। परिणाम यह हुआ कि लोक संस्कृति से जुड़ी हुई कलाएं जिनसे भारत की पहचान परिलक्षित होती थी, वह विलुप्त होने लगीं।

कलाकार अपनी कला का सदुपयोग है करते
वो देश धीरे-धीरे अवनति की तरफ चले जाते हैं। जिनका कल्चर नष्ट हो जाता है इसलिए इसे बचाने के लिए कलाओं और उनसे जुड़े कलाकारों का संरक्षण करना बहुत आवश्यक है। मेरी जिज्ञासा रही कि अकबर के दरबार में नवरत्नों में तानसेन या रहीम का इतना महत्वपूर्ण स्थान क्यों था, बहुत दिमाग लगाया तो पाया कि शायद उस वक्त के बादशाहों का सोच यह रही होगी कि कवि कलाकार समाज की असली तस्वीर और कड़वी सच्चाई हमारे सामने रखते हैं। इसलिए हम समाज के हर वर्ग को प्रसन्न रख पाते हैं। उस समय कलाकारों को बहुत इज़्ज़त से देखा जाता था। वह अपने परिवार के भरण-पोषण से बेखबर होकर शासन के लिए अपनी कला का सदुपयोग करते थे, लेकिन वर्तमान में सरकारों को इन सब से कोई लेना-देना नहीं। यहां तो हर बात में राजनीति हावी रहती है। सबसे पहले तो हर कलाकार को जाति और धर्म के खाते में फिट करके देखा जाता है। फिर उस पर कोई निर्णय लिया जाता है। 

अगर कोई सरकार कवियों शायरों लोक कलाकारों या खिलाड़ियों को किसी विशेष सम्मान से सम्मानित करती है। तो आने वाली दूसरी सरकार पहली सरकार के सारे फैसलों को पलट कर यह दिखाना चाहती है। पूर्ववर्ती शासन में यह सम्मान गलत दिए गए इसे बंद कर दिया जाए। शरीर अशक्त होने पर सरकारी कर्मचारियों को तो 60 वर्ष बाद पेंशन की सुविधा दे दी जाती है। लेकिन अगर किसी सरकार के द्वारा कलाकारों के भविष्य के लिए कोई व्यवस्था की गयी है तो आने वाली सरकार उस व्यवस्था को नए नए नियम बनाकर बंद कर देती हैं। कलाकारों का कोई जीवन नहीं होता क्या? सारा जीवन सरकारी कर्मचारियों, विधायकों और सांसदों का ही होता है क्या? पार्टी के किसी कार्यकर्ता की मौत या हत्या पर उसको लाखों रुपये की सरकारी मदद तुरंत मुहैय्या करा दी जाती है। लेकिन कलाकारों को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है।

कलाकारों के लिए नहीं हुई आर्थिक पैकेज की घोषणा
कोरोना महामारी में उन कलाकारों की तो कमर ही टूट गई जो अपनी कला को बेच बेच कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। कोविड के प्रतिबंधों के चलते छोटे छोटे कलाकार जो रोज़ कमा कर खाया करते थे उन पर बहुत बड़ा आर्थिक संकट आ गया। उस समय जो केंद्र सरकार और राज्य सरकार का बजट आया तो समाज के तमाम वर्गों के लिए बजट के पैकेज दिए गए लेकिन कलाकारों के लिए किसी आर्थिक पैकेज की घोषणा नहीं हुई ऐसी स्थिति में संपन्न कवियों, शायरों, लोक गायकों ने अपने अपने स्तर पर अपने जरूरतमंद साथी कलाकारों के लिए दवाइयां तथा भोजन की व्यवस्था तो की लेकिन सरकार की तरफ से कोई नजरे इनायत नहीं हुई। राजा को मालूम होना चाहिए कि स्वाभिमानी कलाकार संकट में मजदूरी कर लेगा लेकिन भीख नहीं मांगेगा। सभी के स्वाभिमान की रक्षा करना राजा का दायित्व बनता है।

देश की संस्कृति को होगा बचाना
उत्तर प्रदेश समेत जिन जिन राज्यों में चुनावों के बाद जो नई सरकारें गठित हों तो उनको चाहिए कि अगर देश को बचाना है तो इस देश की संस्कृति को हर हाल में बचाना होगा। अगर संस्कृति को बचाना है तो इसके वाहक कलाकारों को राज्याश्रय देकर उन्हें संरक्षण देना पड़ेगा। क्योंकि देखा गया है जिसे राज्याश्रय मिल जाता है। वो पनप जाता है इसलिए कलाकारों की अस्मिता की रक्षा करने के लिए सरकारों के साथ साथ समाज के संपन्न वर्ग को भी आगे आना होगा।

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