सार
अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने के बाद भारत के पड़ोसी मुल्कों; पाकिस्तान और चीन के मिजाज बदले-बदले से नजर आ रहें। दोनों मुल्क तालिबान को समर्थन देकर अपने हित साधने में लगे हैं, लेकिन भारत के लिए ये एक चुनौती है। कांग्रेस के सीनियर लीडर शशि थरूर ने इस मुद्दे पर एक लेख लिखा है, जिसे संपादित करके यहां आपको पढ़ाया जा रहा है।
जब से तालिबान के धार्मिक आतंकवादी(theocratic terrorists) काबुल में सत्ता में लौटे हैं, अफगानिस्तान के लोगों, विशेष रूप से यहां की महिलाओं और लड़कियों को अकल्पनीय पीड़ा का सामना करना पड़ा है। कारण; दुनिया का ध्यान अन्य मुद्दों पर जाता है। लेकिन कई अन्य देशों; विशेष रूप से भारत के लिए यह चिंता का कारण है। अफगानिस्तान में अमेरिका की लीडरशिप में पिछले 20 सालों के 'राष्ट्र निर्माण' के असफल प्रयासों के बाद तालिबान की जीत न सिर्फ उसके साथी जिहादियों को उत्साहित करेगी, बल्कि इस क्षेत्र की भौगोलिक राजनीति(geopolitics) को भी हिलाकर रख देगी। काबुल के पतन के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाले 'राष्ट्र-निर्माण' प्रयासों के 20 वर्षों के असफल प्रयासों के बाद तालिबान की जीत न केवल उनके साथी जिहादियों को उत्साहित करेगी, बल्कि क्षेत्र की भू-राजनीति को भी हिला देगी। काबुल के पतन से पैदा हुई अस्थिरता के प्रभाव के प्रमाण अफगानिस्तान के पड़ोसियों की प्रतिक्रियाओं के रूप में देखें...
पाकिस्तान के तालिबान से हित
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान(Imran Khan) की प्रतिक्रिया थी कि तालिबान की सत्ता में वापसी 'गुलामी की बेड़ियों को फेंकने के समान है!' यह पहले से ही पता था कि तालिबान संचालित अफगानिस्तान सिर्फ पाकिस्तान के का एक 'जंतु(creature) होगा।' जब 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान पर तालिबान शासन करता था, तब उनका इस्लामिक अमीरात(Islamic emirate) पाकिस्तानी की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस एजेंसी( Inter-Services Intelligence agency) के पूर्व स्वामित्व(मालिकाना) वाली कंपनी के सहायक के तौर पर काम करता था। हालांकि इस बार पाकिस्तान का नियंत्रण थोड़ा कम माना जाता है, फिर भी उसने ISI प्रमुख(तत्कालीन) फैज हमीद को नई तालिबानी सरकार के गठन के दौरान अध्यक्षता करने के लिए काबुल की यात्रा करने से नहीं रोका।
चीन के तालिबान से हित
कम खुले तौर पर, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन एक नाजुक स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर रहा है। चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे(China–Pakistan Economic Corridor-CPEC) में 62 अरब अमेरिकी डॉलर का इन्वेस्ट किया है। यह अंतरराष्ट्रीय बेल्ट और सड़क पहल( Road Initiative) की एक सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। चीन इसे खतरे में डालना नहीं चाहेगा। बता दें कि जुलाई में तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल(delegation) चीन के विदेश मंत्रीवांग यी(Wang Yi) से मिला था।
चीन ने आर्थिक और राजनीति लाभ को देखते हुए घोषणा है कि वो तालिबान के साथ व्यापार करेगा। वह अफगानिस्तान के काफी कम दोहन वाले खनिज संसाधनों(mineral resources), विशेष रूप से दुर्लभ पृथ्वी का दोहन करने और मेस ऐनाक स्थित तांबे की खान(copper mine) को फिर से खोलने की मांग कर रहा है। यहां तक कि -CPEC को अफगानिस्तान तक बढ़ाने की भी बात चल रही है। बता दें कि मेस ऐनक ( पश्तो / फारसी में अर्थ है तांबे का छोटा स्रोत), जिसे मिस ऐनक या मिस-ए- ऐनाक भी कहा जाता है, एक बंजर क्षेत्र में स्थित काबुल के 40 किमी दक्षिण-पूर्व में एक साइट है। यह लोगार प्रांत में है। यह अफगानिस्तान का सबसे बड़ा तांबे का भंडार है।
अफगानिस्तान का चीन के प्रति नरम रुख
अफगानिस्तान के नए पहले उप प्रधान मंत्री मुल्ला अब्दुल गनी बरादर( Mullah Abdul Ghani Baradar) ने चीन को एक भरोसेमंद दोस्त कहा। वो भी तब, जब चीन में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो रहा है। यह बयान गर्मजोशी से भरा हुआ प्रतीत होता है।
उइगर(Uyghur) मुस्लिमों का लेकर अफगानिस्तान से यह चाहता है चीन
अफगानिस्तान के साथ चीन यह प्राथमिकता सुनिश्चित करना चाहता है कि तालिबान शिनजियांग के उइगर असंतुष्टों को न तो समर्थन दे और न ही शरण दे। साथ ही CPEC के काम में कोई रोड़ा न बने। इस समय तालिबान को मदद की सख्त जरूरत है। बता दें कि पिछली अफगान सरकार के 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर बजट का 80 प्रतिशत बाहर से मदद के तौर पर मिला था।
भारत के लिए चिंता का विषय है चीन-तालिबान की दोस्ती
अफगानिस्तान की ये क्षेत्रीय गतिशीलता( regional dynamics) और चीन-पाकिस्तान से निकटता भारतीय पॉलिसीमेकर्स के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। पाकिस्तान एक दीर्घकालिक विरोधी है, जिसने भारत के खिलाफ सक्रिय रूप से वित्त पोषित और सशस्त्र उग्रवाद(funded and fomented armed militancy) को बढ़ावा दिया है। 2008 के मुंबई आतंकवादी हमलों के आयोजकों(पाकिस्तान) की मेजबानी करने वाला चीन भारत का एक रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है। यह आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक खतरे पैदा करता है। कोई भी अफगानिस्तान-पाकिस्तान-चीन धुरी( axis); जिसमें नीति समन्वय( policy coordination) शामिल है, भारत के लिए एक बड़ा जोखिम है।
पाकिस्तान को रणनीति तौर पर फायदा
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से पाकिस्तान को न केवल वह 'रणनीतिक गहराई (strategic depth) मिलती है, जिसकी उसकी सेना ने भारत के खिलाफ लंबे समय से मांग की है, बल्कि यह और आतंकवादियों और आतंकवादियों के लिए एक उपयोगी भर्ती मैदान(अफगानिस्तान) भी है। अगर ISI उन्हें फिर से तैनात करना चाहता है। पिछली बार जब तालिबान सत्ता में था, भारत ने स्वर्गीय अहमद शाह मसूद के नेतृत्व वाले उत्तरी गठबंधन(Northern Alliance) के तहत पंजशीर घाटी विद्रोह को सक्रिय रूप से समर्थन देने के लिए रूस और ईरान के साथ समझौता किया था। हालांकि इस बार चीन समर्थक रूस ने भारत के साथ अफगानिस्तान के मुद्दों पर तटस्थ रुख अपनाया है।
ईरान का रुख
ईरान अपने हाल ही में चुने गए कट्टरपंथी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी(Ebrahim Raisi) के नेतृत्व में नए इस्लामी अमीरात को स्वीकार करने के लिए तैयार है, जब तक कि तालिबान शिया-विरोधी उत्पीड़न को बचाए रखता है। जैसा कि उसने पहले भी किया था। अगर अफगानिस्तान के शिया हज़ारा समुदाय को सांस्कृतिक रूप से फ़ारसी-प्रभावित ताजिकों और उज़बेकों के संरक्षण मिलता है, तो ईरान तटस्थ रह सकता है। ईरान और रूस दोनों ही इस बात से खुश हैं कि अमेरिका को अफगानिस्तान से जाना पड़ा। भारत काबुल की नई सरकार से संपर्क कर सकता है। हालांकि भारत तालिबान को मान्यता देने से इनकार करता रहा है, लेकिन भारतीय प्रतिनिधि ने जून में दोहा में तालिबान के प्रतिनिधियों से मुलाकात की थी। अन्य भारतीय राजनयिक भी तालिबान अधिकारियों के संपर्क में थे। इनमें से 2 बरादर और शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई नई अफगान सरकार में हैं।
कश्मीर को लेकर तालिबान कर रुख
बरादर ने 8 साल पाकिस्तानी हिरासत में बिताए हैं, जो उसके लिए पाकिस्तान के प्रति ठीक नहीं रहे। लेकिन जहां कुछ तालिबान अधिकारियों ने भारत के साथ अच्छे संबंध रखने की बात कही है, वहीं अन्य ने कहा है कि उनका इस्लामिक अमीरात भारत के मुसलमानों के लिए खड़ा होगा, खासकर कश्मीर में। जैसा कि पहले तर्क दिया है, पाकिस्तान तालिबान की जीत को लेकर आत्मसंतुष्ट होने का जोखिम नहीं उठा सकता। क्योंकि कट्टर इस्लामवादी तालिबान का उदय, पाकिस्तान के लिए परेशानी का कारण है। खासकर अगस्त में काबुल हवाई अड्डे पर बम धमाका करने वाला इस्लामिक स्टेट खोरासन(ISIS-K) इस्लामाबाद के लिए एक चिंता का विषय है। इसके साथ ही अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी से पाकिस्तानी सैन प्रतिष्ठानों पर उसकी सैन्य निर्भरता कम हो जाती है, इससे ISI को कई संसाधनों से वंचित होन पड़ा।
अफगानिस्तान में भारत का निवेश
भारत ने अफगानिस्तान में बांधों, राजमार्गों, बिजली ग्रिडों, अस्पतालों, स्कूलों और यहां तक कि संसद भवन में 3 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है। यह सब अब तालिबान के हाथों में है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के लगातार मुस्लिम विरोधी बयानों से इस्लामी दुनियाभर में नाराजगी की संभावना है। क्वाड(Quad)पार्टनरशिप- जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं- हिंद महासागर में भारत की समुद्री उपस्थिति को मजबूत करते हैं। लेकिन देश के लिए मुख्य सुरक्षा खतरे चीन और पाकिस्तान के साथ इसकी भूमि सीमाओं पर हैं, जहां क्वाड के बहुत अधिक उपयोग की संभावना नहीं है।
भारत के पास अब अपने उत्तर-पश्चिम में एक तालिबान शासन है, एक परमाणु-सशस्त्र, इसके पश्चिम में आतंकवाद का समर्थन करने वाला राज्य और अपने उत्तर-पूर्व में एक शत्रुतापूर्ण महाशक्ति(चीन) है। इस माहौल में, राष्ट्रीय सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखना आने वाले महीनों और वर्षों में भारतीय कूटनीति के लिए एक अभूतपूर्व चुनौती होगी।
(यह समाचार संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अवर महासचिव-former UN under-secretary-general और पूर्व भारतीय विदेश मंत्री शशि थरूर के एक लेख को संपादित करके लिया गया है। साभार: aspistrategist.org)