Study: बहुत ठंड बढ़ने पर ही क्यों पिघलता है नंदा देवी ग्लेशियर, जानें क्या कहते हैं इसे लेकर साइंटिस्ट्स

नेशनल डेस्क। उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर के टूटने से भारी तबाही मची है। इस प्रकृतिक आपदा में अब तक सैकड़ों लोग लापता हैं। अभी तक यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है कि इसमें कितने लोगों की जानें गई हैं। नंदा देवी और हिमालय के दूसरे ग्लेशियर बहुत ज्यादा ठंड पड़ने पर ही क्यों पिघतले हैं, इसे लेकर दुनिया भर के वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन (Climate Change) इसके पीछे मुख्य वजह है। क्लाइमेंट चेंज का असर पूरी दुनिया के पर्यावरण पर पड़ रहा है और यह भविष्य में लोगों के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित होगा, इसे लेकर वैज्ञानिकों के बीच सहमति है। उनका मानना है कि चमोली और केदारनाथ में ग्लेशियर टूटने से आई ऐसी आपदा जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है। जानें इसके बारे में विस्तार से।

Asianet News Hindi | Published : Feb 8, 2021 12:08 PM IST / Updated: Feb 08 2021, 05:45 PM IST

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Study: बहुत ठंड बढ़ने पर ही क्यों पिघलता है नंदा देवी ग्लेशियर, जानें क्या कहते हैं इसे लेकर साइंटिस्ट्स
एक स्टडी से पता चला है कि अगले 15 साल के दौरान हिमालय के ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघलेंगे और उनमें से ज्यादातर का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके पीछे ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) मुख्य वजह है। स्टडी से पता चला है कि ग्लेशियर्स के पिघलने की रफ्तार काफी तेज है। इससे समय-समय पर बड़े पैमाने पर बाढ़ आ सकती है। इसके अलावा ग्लेशियर के पिघलने से झील भी बन सकती है। इससे आबादी को खतरा हो सकता है। जान-माल की भारी क्षति इससे संभव है।
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वैज्ञानिकों का कहना है कि 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर्स के पिघलने से खतरे ज्यादा बढ़ सकते हैं। रविवार को उत्तराखंड के चमोली जिले में जोशीमठ के पास जिस तरह से ग्लेशियर टूटे और उसका भयानक परिणाम सामने आया, ऐसी आपदाएं काफी बढ़ सकती हैं। ऐसे क्षेत्रों में पॉवर प्रोजेक्ट चलाना और दूसरी गतिविधियां कितनी खतरनाक साबित हो सकती हैं, इसका अभी संकेत मिला है। अगर इससे सीख नहीं ली जाती तो आने वाले समय में यह खतरा बढ़ता ही जाएगा।
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बता दें कि जून 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ इलाके में बादल टूटने की वजह से जो भयानक बाढ़ आई थी और जान-माल की भारी क्षति हुई थी, उसके पीछे भी ग्लेशियर के पिघलने की बात कही गई थी। तब जो आपदा आई थी, उसे नियंत्रित करने के लिए सेना और पैरा मिलिट्री फोर्स को लगाना पड़ा था, लेकिन ऐसी आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती। 2013 में केदारनाथ में ग्लेशियर टूटने से जब आपदा आई थी, तब गर्मी का समय था। गर्मियों में ग्लेशियर प्रकृतिक तौर पर पिघतते हैं, लेकिन अभी हुई नंदा देवी और चमोली में आई आपदा से जाहिर है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के असर से ठंड के बहुत बढ़ने पर भी ग्लेशियर टूट जाते हैं, जब तापमान का स्तर शून्य से भी नीचे होता है।
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जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले पर्यावरणविदों का मानना है कि असली खतरा ग्लोबल वॉर्मिंग है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (Wadia Institute of Himalayan Geology) के सीनियर साइंटिस्ट मनीष मेहता का कहना है कि विंटर सीजन में ग्लेशियर्स फ्रोजन कंडीशन में होते हैं। ऐसे में, जिस तरह की बाढ़ चमोली में आई है, उसके पीछे लैंडस्लाइड भी एक वजह हो सकती है। हालांकि, 2020 में उन्होंने जो स्टडी की है, उसके मुताबिक हिमालय के ग्लेशियर पहले की तुलना में दोगुनी तेज गति से पिघल रहे हैं। इसलिए इस तरह की आपदा कभी भी आ सकती है। साइंटिस्ट मनीष मेहता की टीम ने ऋषिगंगा के अपर कैचमेंट एरिया, उत्तरी नंदा देवी ग्लेशियर, त्रिशूल, दक्षिणी नंदा देवी और कई क्षेत्रों में ग्लेशियर्स के पिघलने के पैटर्न की स्टडी की है। उनका कहना है कि कुछ ही वर्षों में उनके आकार में 10 फीसदी तक की कमी आई है। इसका मतलब है कि उनकी मेल्टिंग की प्रॉसेस तेज गति से जारी है।
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वैज्ञानिक अध्ययनों से यह साफ जाहिर है कि पिछले एक साल के अंदर ग्लेशियर्स तेजी से पिघले हैं। उत्तराखंड स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ( USAC) के डायरेक्टर एम पी एस विष्ट का कहना है कि ग्लेशियर्स में आ रहे बदलाव को साफ देखा जा सकता है। पहले की तुलना में उनके रेश्यो बैलेंस में उतार-चढ़ाव बढ़ा है। उत्तराखंड स्पेस एप्लिकेशन सेंटर आईआईटी कानपुर और एचएनबी गढ़वाल यूनिवर्सिटी के साथ मिल कर ग्लेशियर्स पर स्टडी कर रहा है। स्टडी के प्रारंभिक परिणामों से यह साफ जाहिर है कि ग्लेशियर्स का पिघलना ही आपदा की मुख्य वजह है।
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ग्लेशियर्स को लेकर जो इंटरनेशनल संस्थान रिसर्च स्टडी कर रहे हैं, उनसे भी यही पता चलता है कि हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर्स बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। जरूरी नहीं कि गर्मियों में इनके पिघलने से ही खतरा पैदा हो सकता है। सर्दियों के मौसम में भी ये पिघल कर टूट सकते हैं, क्योंकि आंतरिक तौर पर इनमें मेल्टिंग प्रॉसेस जारी रहती है। स्पाई सैटेलाइट से भी जो तस्वीरें ली गई हैं, उनसे यह जाहिर है कि पिछले कुछ वर्षों में ग्लेशियर तेजी से पिघले हैं और वे कम होते जा रहे हैं। नेशनल जियोग्राफिक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 40 साल के दौरान हिमालय के ग्लेशियर्स का एक-चौथाई हिस्सा पिघल चुका है।
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जैसे-जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रहा है, दुनिया के पैमाने पर ग्लेशियर्स के पिघलने से बड़े पैमाने पर बाढ़ और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के लेमंट-डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी (Lamont-Doherty Earth Observatory) के प्रोफेसर जोर्ज शेफर (Joerg Schaefer) का कहना है कि ग्लोबल टेम्परेचर में 1 डिग्री की बढ़ोत्तरी भी ग्लेशियर के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है। उन्होंने कहा कि ग्लेशियर पिघलने से ही मई 2012 में नेपाल के पोखरा के पास के गांवो में ऐसी भयानक बाढ़ आई थी, जिसमें 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। इसलिए ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने के उपाय जब तक नहीं किए जाएंगे, ऐसी आपदाएं और भी बढ़ सकती हैं।
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