बिपिन चंद्र पाल (Bipin Chandra Pal) ने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। वह लाल-बाल-पाल की तिकड़ी में से एक थे। उन्होंने जातिवाद और अन्य सामाजिक बुराइयों का खुलकर विरोध किया था।
नई दिल्ली। देश को आजाद हुए 75 साल हो गए। आजादी की लड़ाई में लाल-बाल-पाल की तिकड़ी ने अहम भूमिका निभाई थी। इस तिकड़ी ने अंग्रेजो को नाकों चने चबवा दिये थे। आज हम आपको तिकड़ी के नेता बिपिन चंद्र पाल (Bipin Chandra Pal) के बारे में बता रहे हैं।
बिपिन चंद्र पाल का जन्म 7 नवंबर 1858 को हबीबगंज (वर्तमान में बांग्लादेश में) में हुआ था। उनके पिता का नाम रामचंद्र और माता का नाम नारयाणीदेवी था। उनकी आारंभिक शिक्षा घर पर ही फारसी भाषा में हुई। उच्च शिक्षा के लिए बिपिन को माता-पिता ने कलकत्ता भेजा। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया। उन्होंने ग्रेजुएट होने से पहले ही पढ़ाई छोड़ दी। इसके बाद कलकत्ता की एक लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन का काम किया। इसके अलावा उन्होंने एक स्कूल में हेडमास्टर की नौकरी भी की।
तिलक, लालाजी और महर्षि अरविंद से प्रभावित थे पाल
बिपिन चंद्र पाल सुरेंद्र नाथ बनर्जी, शिवनाथ शास्त्री और वीके गोस्वामी जैसे अनेक नेताओं के संपर्क में आए। वे बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और महर्षि अरविंद के कार्यों एवं आध्यात्मिक विचारों से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़कर राजनीति में आकर देश सेवा का संकल्प ले लिया।
कई किताबें लिखी
बिपिन चंद्र पाल विद्वान व्यक्ति थे। उन्होंने गीता, उपनिषद जैसे ग्रंथों का गहन अध्ययन किया था। उनकी प्रमुख रचनाओं में द स्टडीज इन हिन्दुइज्म, नेशनलिस्ट एंड एम्पायर, इंडियन नेश्नलिज्म, स्वराज एंड द प्रेजेंट सिचुएशन, न्यू स्पिरिट, द बेसिस ऑफ रिफार्म, द सोल ऑफ इंडिया क्वीन विक्टोरिया आदि शामिल हैं।
जातिवाद के घोर विरोधी थे बिपिन
बिपिन छोटी उम्र में ही ब्रह्म समाज का हिस्सा बन गए थे। वह देश की सामाजिक बुराइयों, रुढ़िवादी परंपराओं आदि का खुलकर विरोध करने लगे थे। उन्होंने जातिवाद का विरोध कर अपने से ऊंची जाति की लड़की से विवाह किया था। अपने परिवार तक के विरोध का सामना किया और पत्नी को मान सम्मान दिलाने के लिए अपने परिवार का त्याग कर दिया।
इंग्लैंड में रहकर आजादी के आंदोलन में फूंकी जान
भारत में स्वदेशी आंदोलन के बाद बिपिन इंग्लैंड चले गए थे। यहां पर उन्होंने क्रांतिकारी विचारधारा वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिले। इसके बाद ‘स्वराज पत्रिका’ का प्रकाशन शुरू किया। उन्होंने स्थानीय भारतीयों के बीच अपने क्रांतिकारी विचार रखे। 1909 में क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा ने जब कर्जन वाइली की हत्या की तो स्वराज पत्रिका का प्रकाशन बंद करना पड़ा, जिसके बाद वह भारत लौट आए।
विचारों से नहीं किया समझौता
देश में अग्रेजों की दमनकारी नीति तेजी से बढ़ रही थी, जिसके बाद उन्होंने अंग्रेजों का विरोध करने के लिए लाला लाजपथ राय और बाल गंगाधर तिलक के साथ आक्रामक रुख अपनाने का फैसला किया। वह गरम दल के नियोजक के रूप में पहचाने जाने लगे। उनकी बातों और लेखनी में ऐसा प्रभाव था कि उन्हें पूरे बंगाल में अंग्रेजों के खिलाफ हर मोर्चे पर समर्थन मिला। उन्होंने अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया। यहां तक कि वे महात्मा गांधी का विरोध करने से भी पीछे नहीं हटे।
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अपने जीवन के अंतिम वर्षों में कोलकाता में रहते हुए पाल ने खुद को राजनीति से अलग कर लिया था। 20 मई 1932 में भारत के इस वीर ने दुनिया को अलविदा कह दिया। देश में स्वतंत्रता की अलख जगाने वाले महान क्रांतिकारी बिपिन आज भले ही दुनिया में नहीं हैं, लेकिन आज भी वे हर भारतवासी के मन में बसे हुए हैं।