चंद्रशेखर आजाद को 15 साल की उम्र में मिली थी 15 कोड़ों की सजा, हिला डाली थी ब्रिटिश सरकार

चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) आजादी की लड़ाई में पहली बार असहयोग आंदोलन से जुड़े थे। बाद में वह हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए। उन्होंने काकोरी कांड में सक्रिय रूप से भाग लिया था। 

Asianet News Hindi | Published : Mar 25, 2022 12:52 PM IST / Updated: Mar 25 2022, 06:26 PM IST

नई दिल्ली। देश की आजादी के 75 साल हो गए। यह आजादी हमें यूं ही नहीं मिली। इसके लिए चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) जैसे वीर सपूतों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। आजाद ने लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स की हत्या करके लिया था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया था।

आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी उस समय आए अकाल के कारण उत्तर प्रदेश के बदरका में स्थित अपने पैतृक निवास को छोड़कर मध्यप्रदेश आ गए थे। उन्होंने अलीराजपुर रियासत में नौकरी की और बाद में भाबरा गांव में बस गए थे। वह ईमानदार और अपने वादे के पक्के थे। ये गुण आजाद को अपने पिता से विरासत में मिले थे।
  
असहयोग आंदोलन से पहली बार जुड़े थे आजाद
जलियांवाला बाग हत्याकांड के देश उद्वेलित हो उठा था। इस समय चंद्रशेखर आजाद बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो यह आग ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी और देश के तमाम छात्रों की तरह चंद्रशेखर आजाद भी आजादी की लड़ाई में कूच पड़े।
 
चंद्रशेखर को इसलिए बुलाया जाता है ‘आजाद’
चंद्रशेखर को ‘आजाद’ नाम एक खास वजह से मिला।  दरअसल, जब वह 15 साल के थे तब उन्‍हें किसी मामले में एक जज के सामने पेश किया गया। वहां पर जब जज ने उनका नाम पूछा तो उन्होंने कहा, ‘मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा घर जेल है’। जज यह सुनने के बाद भड़क गए और चंद्रशेखर को 15 कोड़ों की सजा सुनाई। यहीं से उनका नाम आजाद पड़ गया। चंद्रशेखर पूरी जिंदगी अपने आप को आजाद रखना चाहते थे।

कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े
असहयोग आंदोलन के दौरान 4 फरवरी 1922 को गुस्साई भीड़ ने गोरखपुर के चौरी-चौरा के पुलिस थाने में आग लगा दी थी। इससे 23 पुलिसवालों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। इसके चलते आजाद का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। इसके बाद वे राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेश चन्द्र चटर्जी द्वारा 1924 में गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए।

पहली बार काकोरी कांड में लिया भाग
चंद्रशेखर आजाद ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 1925 में काकोरी कांड में पहली बार सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने अंग्रेजों के खजाने को लूटकर संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया। चंद्रशेखर का मानना था कि यह धन भारतीयों का है, जिसे अंग्रेजों ने लूटा है।

प्रयागराज में हुए थे शहीद
27 फरवरी 1931 की बात है। चंद्रशेखर आजाद अपने क्रांतिकारी मित्रों के साथ प्रयागराज (इलाहाबाद) के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजी हुकूमत से लड़ने की योजना बना रहे। इसी दरम्यान ब्रिटिश सरकार को मुखबिरों से आजाद के पार्क में होने की खबर मिल गई। इसके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया। आजाद ने काफी देर तक अंग्रेजों से अकेले ही लोहा लिया। दोनों तरफ से भयंकर गोलीबारी हुई और आजाद ने अपने अचूक निशाने से तीन अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। इसके अलावा कई सैनिकों को घायल कर दिया। आजाद ने ठाना था कि दुश्मनों के हाथ नहीं आएंगे। यही वजह थी कि पिस्तौल में बची आखिरी गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हुए।
 
बमतुल बुखारा से था प्यार
चंद्रशेखर आजाद को अपनी पिस्तौल बमतुल बुखारा बहुत अधिक प्रिय थी। चंद्रशेखर आजाद से मुठभेड़ के बाद अंग्रेज अफसर सर जॉन नॉट बावर इस पिस्तौल को लेकर इंग्लैंड चला गया था। आजादी मिलने के बाद आजाद की प्रिय पिस्तौल को वापस लाने के लिए प्रयास शुरू हुए और 1976 में पिस्टल भारत सरकार को सौंप दी गई थी। यह इलाहाबाद म्यूजियम में सुरक्षित रखी है।

Share this article
click me!