अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसीः पश्चिमी देश बढ़ाएंगे दूरी, चीन-रूस का बढ़ेगा हस्तक्षेप!

अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद दुनिया के विभिन्न देशों की रणनीतियों में क्या होगा बदलाव, अफगानिस्तान में रणनीतिक रूप से भविष्य में क्या क्या संभावनाएं और आशंकाएं हैं, यह बता रहे हैं हमारे विशेषज्ञ सैयद अता हसनैन. कश्मीर  विश्वविद्यालय के चांसलर आर्मी के पूर्व जीओसी हैं.सैन्य मामलों के जानकार हैं.

Asianet News Hindi | Published : Jul 16, 2021 10:27 AM IST / Updated: Jul 16 2021, 04:17 PM IST

नई दिल्ली। अफगानिस्तान से अमेरिका अपना सैन्य बल हटा रहा है। जैसे ही अमेरिका अफगानिस्तान से पीछे हटा, उसके इसके कार्रवाई से पूर्व के अभियानों को याद किया जाने लगा है। 
अमेरिका की सबसे प्रसिद्ध वापसी वियतनाम से रही जिसे ‘अंतिम हेलीकॉप्टर’ के नाम से जाना गया। यह इसलिए क्योंकि इस वापसी के दौरान अमेरिका के सारे हेलीकॉप्टर साइगॉन से निकले थे लेकिन उनको शिप पर सवार नहीं किया जा सका। अधिकतर हेलीकॉप्टर को समुद्र में डूबा दिया गया। केवल प्रतीक के रूप में साइगॉन में अमेरिकी दूतावास की छत से एक हेलीकॉप्टर को उड़ाया गया जिसे ‘लास्ट हेलीकॉप्टर’ कहा गया। 

अब अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के दौरान ‘लास्ट हेलीकॉप्टर’ जैसी कोई घटना से बचने के लिए स्ट्रेटेजी में बदलाव है। शायद यही वजह थी कि अफगानिस्तान से वापसी की आखिरी तारीख से पहले बगराम एयरबेस को पूरी तरह खाली कर दिया गया था, जो अब 31 अगस्त, 2021 होने वाली है?

दरअसल, हेलीकॉप्टर अमेरिकी सैन्य इतिहास की कुछ नकारात्मक घटनाओं का प्रतीक हैं। तेहरान से अमेरिकी बंधकों को निकालने के लिए 1980 के असफल डेल्टा फोर्स ऑपरेशन (ऑपरेशन ईगल क्लॉ) और मोगादिशु, सोमालिया में 1993 के ऑपरेशन (ऑपरेशन गॉथिक सर्पेंट) - जिसे आमतौर पर ‘ब्लैक हॉक डाउन‘ कहा जाता है - में हेलीकॉप्टर शामिल थे।

अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति के गोलपोस्टों को स्थानांतरित करना

किसी भी पूर्वाग्रह से बचने के लिए 1989 में सोवियत हार और अफगानिस्तान से वापसी को याद करना भी अच्छा है, जो शीत युद्ध को समाप्त करने की दिशा में प्रमुख योगदान कारकों में से एक बन गया।

विश्लेषक के लिए अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि 1980 के दशक के वियतनाम और सोवियत अफगानिस्तान अभियान दो परस्पर विरोधियों के शीत युद्ध के दौरान के थे। 
2001 से अमेरिकी सेनाओं और उनके सहयोगियों की वर्तमान पीढ़ी ने अफगानिस्तान में बेहद कठिन लड़ाई लड़ी लेकिन इन सबके बावजूद अफगानिस्तान ‘ग्रेवयार्ड ऑफ एम्पायर्स‘ बना रहा।

निस्संदेह, भविष्य में कई मानव-दिवस यह विश्लेषण करने में व्यतीत होंगे कि क्या अमेरिका की वापसी हार का प्रतीक है या परिस्थितियों से उत्पन्न विवेक का, जिसमें वह अपने उद्देश्यों के पूरा होने का दावा करता है। 

राष्ट्रपति बुश का उद्देश्य ‘एक स्थिर, मजबूत, प्रभावी रूप से शासित अफगानिस्तान का निर्माण करना था जो अराजकता में नहीं बदलेगा‘, जिसे राष्ट्रपति ओबामा ने ‘अफगानिस्तान को वैश्विक आतंकवाद के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह बनने से रोकने‘ के लिए छोटा कर दिया।

इन बयानों की व्याख्या किया जाए तो साफ है कि दोनों उद्देश्यों ने स्थिरीकरण और किसी भी प्रकार के उग्रवाद की रोकथाम पर ध्यान केंद्रित किया। क्योंकि अमेरिका जानता है कि उग्रवाद या अस्थिरता बड़े पैमाने पर दुनिया के लिए और विशेष रूप से अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए खतरा पैदा करने में सक्षम है।

साफ था कि 9/11 के अपराधियों का खात्मा या पराजित करना, चरमपंथी विचारधाराओं पर नियंत्रध सुनिश्चित करता है, जो उनको फिर सिर उठाने से रोकने में सहायक होता। इससे विरोधियों पर सैन्य श्रेष्ठता का प्रभाव भी पैदा करता है जो उनके पुनरूत्थान को रोकने में सहयोग कर सकती है। 

पाकिस्तान ‘बाधा‘ है

अमेरिका की सफलता में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक पाकिस्तान था, जो सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध में एक दीर्घकालिक भागीदार और अग्रिम पंक्ति का राज्य था।
चरमपंथी इस्लाम का पूरा चक्र मुख्य रूप से उसके इशारे पर 1980 के दशक के दौरान अफगान शरणार्थी शिविरों में शुरू हुआ था, जहां से तालिबान का उदय हुआ था। इसने सोवियत संघ के खिलाफ पूरे विश्व में इस्लामी आतंक का नेतृत्व किया था। यह भी सब जानते हैं कि सऊदी अरब की वित्तीय ताकत और अमेरिका से भौतिक संसाधनों की मदद से ही यह सब हो रहा था।

दरअसल, पाकिस्तान की यह भी सोच थी कि अफगानिस्तान में तालिबान की मदद करने से वहां भारतीय प्रभाव बेअसर होने के साथ जम्मू-कश्मीर में भी वह अपनी छाप छोड़ सकेगा। और जम्मू-कश्मीर में वह रणनीतिक रूप से सफल भी हो सकेगा। 

पाकिस्तान की रणनीतियों का ही हिस्सा रहा कि पूरा तालिबान नेतृत्व पाकिस्तान में फिर से स्थित हो गया और अल-कायदा की तरह वर्षों तक वहां रहा। हालांकि, खुद पीडि़त होने के बावजूद अमेरिका पाकिस्तान की आलोचना करने में असहाय दिखाई दिया। इसकी एक वजह यह थी कि वह समुद्री मार्ग से कराची और फिर सड़क मार्ग से अपने रसद पहुंचाने के लिए निर्भर था। क्योंकि सीएआर में एयरहेड्स के माध्यम से युद्ध लड़ना बेहद महंगा होता। यह शायद एकमात्र सबसे महत्वपूर्ण कारक है जिसने तालिबान को लंबी उम्र दी, उसे एक और दिन शासन करने के लिए जीवित रहने में सक्षम बनाया।

अफगान सेना को अकेला छोड़ना और पाकिस्तान के साथ कहीं नहीं जाना

अमेरिका ने अफगान नेशनल आर्मी (एएनए) को प्रशिक्षित किया और भारत ने भी अपना योगदान दिया। हालांकि, यह उम्मीद करना अवास्तविक है कि कुछ वर्षों में एक अत्यधिक कुशल पेशेवर बल के रूप में उभरेगा।

एएनए में साहस की कभी कमी नहीं थी लेकिन मध्यम से उच्च स्तरीय नेतृत्व अनुभव के बिना पेशेवर रूप से मजबूत नहीं हो सकता। ऊपर से विश्वास (वफादारी में नहीं, बल्कि क्षमता में) कम थी। आलम यह कि लगातार डर के कारण बेहतर हथियार और उपकरण से लैस होने से रोका गया। उधरी, तालिबान इन सभी उपकरणों का उपयोग विदेशी ताकतों के खिलाफ भविष्य की आकस्मिकताओं में करेगा।

यह बात दीगर है कि वापसी के करीब अमेरिका ने एएनए की सहायता के लिए सशस्त्र ड्रोन और कुछ निश्चित विंग संपत्तियों के प्रक्षेपण के लिए पाकिस्तान से एयर बेस सुविधाओं की मांग की लेकिन इसके लिए एग्रीमेंट नहीं कर सका। 

इसके विपरीत राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर के कार्यकाल में पाकिस्तान के नेतृत्व को चेतावनी देकर साथ रखा गया था, सहयोग नहीं मिलने पर पाकिस्तान को पाषाण युग में वापस भेजने की धमकी दी गई थी। हालंकि, इन वर्षाें में अमेरिका को पाकिस्तान में अपने प्रभाव का लाभ उठाने का समय था।
यह भी एक सच्चाई है कि अपर्याप्त हवाई सपोर्ट के साथ अफगानिस्तान आर्मी को छोड़कर वापस आना अमेरिका की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह भी खड़े करेगा। 

तालिबान का विश्वासः अमेरिका उसकी विचारधारा को चुनौती नहीं देगा

युद्ध जीतने के लिए सैन्य श्रेष्ठता से कहीं अधिक मायने रखती है वहां की पारंपरिक प्रकृति और वातावरण जो सहायक और श्रेष्ठ होना चाहिए।
तालिबान को बहुत पहले ही समझ में आ गया था कि अमेरिका बदला लेने के लिए अफगानिस्तान में है और अपने अन्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक प्रतिबद्ध नहीं होगा। इसने विचारधारा के संबंध में अपने कुटिल तरीकों को नहीं बदला है। उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान में महिलाओं की स्थिति अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए चिंता का विषय बनी रहेगी। हालांकि, विशेष रूप से पश्चिमी दुनिया के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए अफगान धरती का उपयोग असंभव हो सकता है। हालांकि, क्षेत्रीय रूप से इस मुद्दे पर आश्वस्त नहीं हो सकते हैं। 

तालिबान की अतार्किकता का एक उदाहरण 22 एएनए स्पेशल फोर्स के जवानों की हत्या है जो आत्मसमर्पण करने का प्रयास कर रहे थे। यह नियमों से खेलने के लिए अपनी क्रूरता और अनिच्छा को सामने लाता है। यदि ऐसा है, तो सरकार और तालिबान के बीच चल रही सभी वार्ताओं को विफल माना जाना चाहिए।

वर्तमान स्थिति का वास्तव में दिलचस्प पहलू यह है कि तालिबान नियंत्रण हासिल करने का प्रयास कर रहा है और एएनए से युद्ध जारी है। इसमें विदेशी हस्तक्षेप भी है।  हमेशा ग्रेट गेम सिंड्रोम का एक हिस्सा अफगानिस्तान, में चीन और रूस की गहन भागीदारी देखने की संभावना है। जबकि अमेरिका और पश्चिम गहरी रुचि के बावजूद दूरी बनाएंगे। 
और फिर भारत है जिसके हित सॉफ्ट पावर में 3 बिलियन डॉलर के निवेश से कहीं अधिक हैं। हालांकि, सब इंतजार कर रहे हैं और देख रहे हैं।

(लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त) श्रीनगर स्थित 15 कोर के पूर्व कमांडर थे। वह वर्तमान में कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं।)

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