न लड़का दूल्हा और न लड़की दुल्हन...उत्तराखंड में होने जा रही ये अनोखी शादी

देवभूमि उत्तराखंड में एक अनोखी शादी होने जा रही है। शादी में न दूल्हा कोई लड़का है और न दुल्हन कोई लकड़ी है। इसी लिए खास है ये विवाह। पढ़ें पूरी खबर… 

यूएस नगर। उत्तराखंड के यूएस नगर जिले में एक अनोखी शादी होने जा रही है। अनोखी इसलिए क्योंकि इस शादी में दूल्हा-दुल्हन ही नहीं हैं। यानी न कोई लड़का इस शादी में दूल्हा है और न कोई लड़की दुल्हन है। इसी लिए तो ये शादी खास है और पूरे शहर में इसके चर्चे हो रहे हैं।  

23 नवंबर को अनूठी शादी, महिला संगीत भी हुआ
जिले में खटीमा शहर में देवउठनी एकादशी यानी 23 नबंवर को हजारों की संख्या में शादियां होने जा रही हैं लेकिन एक खास शादी यहां चर्चा का विषय बनी हुई है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस शादी में कोई लड़का न दूल्हा बनेगा और कोई लड़की दूल्हन फिर भी वर और वधु पक्ष की ओर से शादी की तैयारियां की जा रही हैं। शादी के कार्ड भी शहर में बांट दिए गए हैं। बुधवार को दिन में महिला संगीत का भी कार्यक्रम हुआ था।

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वर पक्ष बारात लेकर आएगा
गुरुवार को वर पक्ष बारात लेकर जाएगा। दूसरी ओर वधू पक्ष बारातियों के स्वागत की तैयारियों में जुट गया है। पूरे रस्म और रिवाजों के साथ ये शादी कराई जा रही है। विवाह के अनुष्ठान संपन्न करवाए जाएंगे। खास ये भी है कि विवाह के बाद वर पक्ष अपने घर लौट जाएगा।

खटीमा के एक परिवार ने शुरू की परंपरा 
खटीमा में कंजाबाग के घनश्याम सनवाल और कैलाश सनवाल के पिता दिवंगत गिरीश चंद्र सनवाल ने कुछ साल पहले पीपल का एक पौधा लगाया था। उन्होंने उसे अपने घर के सदस्य की तरह पालपोस कर बड़ा किया था। उनकी इच्छा थी कि इस पीपल के पेड़ की धूमधाम से शादी हो। गिरीश सनवाल आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन परिवार के लोग उनकी इच्छा पूरी करने जा रहे हैं। 

बरगद के पेड़ से होगी शादी
इस अनूठी शादी में वर का नाम है चिरंजीवी पीपल और वधू है आयुष्मति वट यानी बरगद है। पीपल और बरगद के पेड़ की शादी में शहर के तमाम लोगों को न्यौता दिया गया है। यह हिंदू समाज की काफी पुरानी परंपरा है। इसके अलावा यहां के किसान परिवारों में भी पीपल और वट वृक्ष का विवाह होता है।

कई ऐसे समाज और किसान परिवार भी हैं जिनके यहां फलदार पेड़ों की भी शादियां कराई जाती है। इनका मानना है पेड़ों की आपस में शादियों से इनका परिवार बढ़ेगा। परिवार ने पीपल का पौध रोपा था। कुछ समय बाद केशवदत्त भट्ट ने वट का वृक्ष रोपा था। उन पवित्र वृक्षों का रिश्ता पहले ही तय कर दिया गया था।

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