नोच डाला था शरीर...खून से सन गई थी बस, सड़क और निर्भया की मां, जानें 7 साल के संघर्ष का कैसे हुआ अंत

नोच डाला था शरीर...खून से सन गई थी बस, सड़क और निर्भया की मां, जानें 7 साल के संघर्ष का कैसे हुआ अंत

Published : Mar 20, 2020, 09:28 AM IST

वीडियो डेस्क। 16 दिसंबर 2012 एक ऐसी खौफनाक रात जिसकी सुबह कभी नहीं हुई। जब एक पैरामेडिकल की छात्रा के साथ 6 लोगों ने चलती बस में सामूहिक दु्ष्कर्म किया। ये घटना इतनी भयावह थी कि जिक्र करने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और शरीर सिहिर जाता है। इतना वीभत्स दुष्कर्म कांड जिसने पूरे देश को हिला दिया। 23 साल की युवती के शरीर का शायद ही कोई हिस्सा बचा हो जिसको दरिंदों 

वीडियो डेस्क। 16 दिसंबर 2012 एक ऐसी खौफनाक रात जिसकी सुबह कभी नहीं हुई। जब एक पैरामेडिकल की छात्रा के साथ 6 लोगों ने चलती बस में सामूहिक दु्ष्कर्म किया। ये घटना इतनी भयावह थी कि जिक्र करने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और शरीर सिहिर जाता है। इतना वीभत्स दुष्कर्म कांड जिसने पूरे देश को हिला दिया। 23 साल की युवती के शरीर का शायद ही कोई हिस्सा बचा हो जिसको दरिंदों ने नोचा ना हो। 12 दिन जिंदगी और मौत से जूझती निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए पूरा देश सड़कों पर उतर आया। पुलिस स्टेशन से लेकर कचहरी तक पटियाला कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक निर्भया की मां ने अपनी बेटी के इंसाफ की लंबी लड़ाई लड़ी। 
7 साल का लंबा इंतजार...तमाम दलीलें और मुजरिमों को बचाने की हर संभव कोशिश...लेकिन कहते हैं हर काली रात का अंत होता है एक फिर आशा की किरण निकलती है और सूरज हर अंधेरे को चीर देता है। और 16 दिसंबर की उस रात का भी अंत हुआ। ये दिन था 20 मार्च 2020। इस दिन सूरज को निकलने की जल्दी थी। बांछे पसारने को तैयार था। फांसी के फंदे बेताब थे दरिंदों की गर्दन में लिपटने के लिए। जल्लाद तैयार था दोषियों को सूली पर चढ़ाने के लिए। ये वो वक्त था जब हिसाब होना था निर्भया के गुनाहगारों के गुनाह का। हिसाब होना था निर्भया की हर चीख का, खून के हर उस एक कतरे का जिससे बस सड़क और एक मां का आंचल भीग गया। हिसाब होना था उस दर्द का जो एक 23 साल की लड़की ने 16 दिसंबर की रात को झेला था। हिसाब होना था उस मां के संघर्ष का जो दिन रात अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए न्ययालय की चौखट पर खड़ी रही। न्याय होना था उस जघन्य अपराध का जिसको गले लगाने के लिए मौत भी बेताब थी। 
समय 5: 30 बजे
जगह तिहाड़ जेल
घड़ी की सूईयां घूम रहीं थीं...टिक टिक टिक, बड़ी सूई छोटी सूई से कुछ ही फांसले पर थी....ये वक्त था सुबह के साढ़े 5 बजे का। अमूमन दिल्ली में इतनी जल्दी सुबह नहीं होती, रात को देर से सोते लोग और फिर देर तक बिस्तर में करवट बदलते लोग। और उस पर भी कोरोना के कहर से कराहती दुनिया। हिंसा से सुलगती दिल्ली हो या फिर वायरस के कहर से सन्नाटे को ओढने वाली राजधानी लेकिन अंधेरे की इस खामोशी में भी जो शोर था वो था निर्भया के इंसाफ का। उस बेगुनाह डॉक्टर का जो अगर आज जिंदा होती तो लोगों के लिए मसीहा बनी होती। 
20 मार्च का दिन मुकर्रर किया गया उस न्याय के लिए जिसकी बाट इस देश का हर एक इंसान देख रहा था। जैसी ही साढ़े 5 बजे निर्भया के चारों दोषियों को सूली पर लटका दिया गया। तब तक लटकाया जब तक चारों के प्राण ना निकल गए। इन चारों को भी वहीं तड़प, वहीं खौफ और वहीं दर्द महसूस हुआ होगा जो उस रात 23 साल की महिला ने झेला था। मौत का खौफ कैसा होता है ये हर एक गुनहगार को पता चला होगा। वहीं इसी फांसी के साथ इंसाफ हुआ देश की बेटी से साथ जो इन दरिंदों की वजह से अपना नाम और पहचान खोकर दुनिया के लिए निर्भया बन गई थी।  
 

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