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फ्रीडम फाइटर के घर का है बिहार का ये चर्चित बाहुबली, कोर्ट ने दी थी फांसी की सजा, मगर...

पटना। बिहार में विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Polls) की घोषणा हो गई है और एक बार फिर राजनीति में बाहुबलियों का प्रसंग उठने लगा है। हालांकि इस बार चुनाव आयोग ने दागी छवि के नेताओं के विधानसभा पहुंचने के लिए सख्त नियम बनाए हैं। वैसे हमेशा से ही दागी और बाहुबली नेता राजनीति के चोर दरवाजे से बिहार की विधानसभा और लोकसभा पहुंचते रहे हैं। खासकर 80 के दशक के बाद बिहार में राजनीति और "साधन सम्पन्न" बाहुबल एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे। कहते हैं कि इमरजेंसी के बाद राज्य में जिस समाजवाद की नई राजनीति का उभार हुआ वो बाहुबलियों के संसाधन से ही सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे। 

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Asianet News Hindi
Published : Sep 26 2020, 04:43 PM IST| Updated : Sep 28 2020, 02:47 PM IST
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चाहे लालू यादव (Lalu Yadav) रहे हों या नीतीश कुमार (Nitish Kumar), दोनों ने बाहुबलियों का इस्तेमाल किया। दूसरी पार्टियों ने भी जीत की गारंटी माने जाने वाले बाहुबलियों पर हमेशा और खूब भरोसा किया। हालांकि चुनाव सुधार की प्रक्रिया शुरू होने और साफ राजनीति की बहस ने बाहुबलियों का नुकसान किया। सूरजभान (Surajbhan) जैसे कुछ बाहुबली फुलटाइम राजनीति करने लगे। अनंत सिंह (Anant Singh) जैसे जेल से राजनीति कर रहे हैं और कुछ आनंद मोहन (Anand Mohan Singh) और शहाबुद्दीन जैसे भी हैं जिनकी धमक तो आज भी है लेकिन पहले जैसा वजूद नहीं बचा। 

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आनंद मोहन ऐसे ही शख्स हैं जो प्रभावशाली थे, बाहुबली भी थे लेकिन वक्त के साथ उनका राजनीतिक वजूद सिमट गया है। आनंद मोहन ने आपातकाल से राजनीति शुरू की थी। इनका जन्म सहरसा जिले में हुआ था और इनके दादा रामबहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। समाजवादी पृष्ठभूमि से राजनीति की शुरु करने वाले आनंद मोहन अपनी जरूरत के हिसाब से हमेशा इधर से उधर होते रहे।

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आनंद मोहन ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था, मगर हार का सामना करना पड़ा। 1990 में जनता दल (Janata Dal) के टिकट से विधानसभा के मैदान में उतरे और विधायक बने। तब बिहार में जनता दल के दिग्गज नेता लालू यादव थे। नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) जैसे नेता भी लालू के बाद कतार में थे। जब मंडल कमीशन के बाद आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में राजनीति शुरू हुई तो आनंद मोहन ने जनता दल छोड़ दिया। 90 का दौर बिहार में निजी सेनाओं के खूनी संघर्ष के लिए भी जाना जाता है। कहते हैं कि आनंद मोहन की भी निजी सेना थी जो आरक्षण का विरोध कर रही थी। 

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जनता दल छोड़ने के उस दौर में आनंद मोहन की दूसरे बाहुबली राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव (Pappu Yadav) से भी अदावत मशहूर है। पप्पू यादव अब पूरी तरह से राजनीति और समाजसेवा में व्यस्त हो चुके हैं। बहरहाल, आरक्षण विरोध से शुरुआती लोकप्रियता हासिल करने के बाद उत्साहित आनंद मोहन ने 1993 में बिहार पीपुल्स पार्टी (BPP) बना ली। उनकी पत्नी लवली आनंद भी उनके साथ सक्रिय थीं। ये वो दौर है जब केंद्र की सत्ता पाने के बाद जनता दल टूटने लगा था। 

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लालू यादव और जॉर्ज फर्नांडीज़ के साथ नीतीश कुमार अलग हो चुके थे और समता पार्टी बनाकर आमने-सामने थे। 1995 के चुनाव में आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी ने भी चुनाव लड़ा। उस चुनाव में लवली आनंद को सुनने के लिए जबरदस्त भीड़ जुटती थी। हालांकि पार्टी कोई करिश्मा नहीं दिखा पाई। 
 

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1996 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने समता पार्टी जॉइन कर ली और सांसद बने। हालांकि 1998 के चुनाव में उन्होंने फिर साथी बदला और राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर सांसद बने। आनंद मोहन ने बाद में भी आरजेडी, बीजेपी, कांग्रेस और जेडीयू से राजनीति करने की कोशिश की मगर कामयाब नहीं पाए। 

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जेल जाने के बाद मानो उनकी राजनीति पर ही ग्रहण लग गया। दरअसल, 1994 में दलित मजिस्ट्रेट की हत्या के मामले में उन्हें फांसी की सजा मिली। बाद में उनकी सजा आजीवन कारवास में बदल दी गई। आनंद मोहन ने जेल से किताबें भी लिखीं हैं जिनकी चर्चा हुई। शिवहर में उनकी पत्नी लवली आनंद पति के राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए अब भी जद्दोजहद कर रही हैं। लेकिन बिहार के इस बाहुबली का वजूद सिर्फ शिवहर में नजर आता है। 

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सांसद रह चुकी लवली आनंद "फ्रेंड्स ऑफ आनंद मोहन" नामक ग्रुप बनाकर आज भी पति की रिहाई के लिए संघर्ष कर रही हैं। 

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