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इस मंदिर में विराजमान हैं बिना सिर वाली देवी मां, 6 हजार साल पुराना है यहां का इतिहास, परंपरा चौंकाने वाली
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बिना सिर वाली देवी मां
रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर मां छिन्नमस्तिका का मंदिर स्थित है। वैसे तो यहां साल भर श्रद्धालुओं का आना होता है लेकिन नवरात्र के समय यहां बड़ी संख्या में भक्त पहुंचते हैं। मंदिर में मां बिना सिर के विराजमान हैं।
गर्दन से रक्त की धारा प्रवाहित
मंदिर में माता की प्रतिमा में उनका कटा सिर उन्हीं के हाथों में है, और उनकी गर्दन से रक्त की धारा प्रवाहित होती रहती है। जो दोनों और खड़ी दोनों सहायिकाओं के मुंह में जाता है। शिलाखंड में देवी की तीन आंखें हैं। गले में सर्पमाला और मुंडमाल है। मां के बाल खुले हैं और जिह्वा बाहर निकली हुई है। मां नग्नावस्था में कामदेव और रति के ऊपर खड़ी हैं। उनके दाएं हाथ में तलवार है।
क्या है बिना सिर वाली माता की कथा
माता के यहां बिना सिर विराजमान होने के पीछे पौराणिक कथा है। जिसके अनुसार, एक बार मां भवानी अपनी दो सहेलियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं थीं। स्नान करने के बाद उनकी सहेलियों को भूख लग गई। भूख की तड़प इतनी बढ़ गई कि इस कारण से उनका रंग काला पड़ने लगा। उन्होंने माता से खाने के लिए कुछ मांगा। सहेलियों को तड़पता देख मां ने तलवार से अपना सिर काट दिया। कथा के अनुसार, इसके बाद माता का कटा हुआ सिर उनके बाएं हाथ में आ गिरा और उसमें से खून की तीन धाराएं बहने लगीं। माता ने सिर से निकली उन दो धाराओं को अपनी दोनों सहेलियों की ओर बहा दिया। बाकी को खुद पीने लगीं। तभी से उनके इस रूप को छिन्नमस्तिका नाम से पूजा जाने लगा।
छह हजार साल पुराना है इतिहास
इस मंदिर का इतिहास छह हजार साल पुराना बताया जाता है। मंदिर की जिक्र पुराणों में भी मिलता है। मंदिर का निर्माणकला इसके प्राचीन होने का प्रमाण है। कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण महाभारत के समय ही कराया गया होगा। यहां इस मंदिर के अलावा सात और मंदिर हैं जिसमें महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंगबली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर शामिल हैं। पश्चिम दिशा से दामोदर और दक्षिण दिशा से भैरवी नदी यहां बहती हैं।
रात में मंदिर में विरचण करती हैं मां
माना जाता है कि यहां मां छिन्नमिस्तके रात में प्रकट होती हैं और विचरण करती हैं। यही कारण है कि रात के वक्त जब एकदम एकांत हो जाता है तो कई साधक तंत्र-मंत्र की सिद्धि प्राप्ति में जुटे रहते हैं। नवरात्र के समय बड़ी संख्या में साधु-संत यहां आते हैं और मंदिर में 13 हवन कुंडों में विशेष अनुष्ठान कर सिद्धि की प्राप्ति करते हैं।
क्या है परंपरा
यहां महाविद्या के कतार में मां के मंदिर बने हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह स्थान मां का अंतिम विश्राम स्थल भी है। मां को बकरे की बलि जिसे स्थानीय भाषा में पाठा कहा जाता है। यह परंपरा सदियों से यहां जारी है। यहां चैत्र नवरात्रि के सप्तमी तिथि की सुबह बकरे की बलि दी जाती है। इसके बाद बकरे के कटे सिर के ऊपर कपूर रखकर मां की आरती की जाती है।
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