सार
केरल के एक जमींदार परिवार में जन्मी कैप्टन लक्ष्मी ने भारतीय राष्ट्रीय सेना के झांसी रानी रेजीमेंट का नेतृत्व किया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें यह जिम्मेदारी दी थी। सिंगापुर और मलेशिया में रहने वाले भारतीयों की बेटियां झांसी रानी रेजिमेंट में शामिल हुईं थी।
नई दिल्ली। कैप्टन लक्ष्मी का जन्म केरल के एक जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता मद्रास के बड़े बैरिस्टर थे। वह पढ़ाई में होशियार थी। उन्होंने मेडिकल की डिग्री ली। इसी दौरान अंग्रेजों का अत्याचार देखा। इसके बाद विलासितापूर्ण जीवन छोड़कर स्वाधीनता संग्राम में शामिल होने का फैसला किया। लक्ष्मी ने जंगलों, पहाड़ियों और जेल का साहसिक और कठिन जीवन चुना। उन्होंने अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए एक सैनिक के रूप में लड़ाई लड़ी।
लक्ष्मी स्वतंत्रता सेनानी अम्मू स्वामीनाथन और मद्रास के शीर्ष वकील एस स्वामीनाथन की दूसरी बेटी थीं। चिकित्सा में स्नातक होने के बाद लक्ष्मी अपनी असफल शादी के बाद 26 साल की उम्र में सिंगापुर चली गईं। वह सिंगापुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भारतीय राष्ट्रीय सेना के नेताओं से मिलीं और उनकी गतिविधियों से आकर्षित हुईं।
नेताजी ने लक्ष्मी को बनाया था झांसी रानी रेजीमेंट का मुखिया
द्वितीय विश्व युद्ध में आईएनए जापानी सेना के साथ उनके आम दुश्मन ब्रिटेन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा था। लक्ष्मी ने घायल जापानी सैनिकों की देखभाल की। नेताजी के सिंगापुर आने पर लक्ष्मी से मुलाकात हुई और उन्होंने आईएनए में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की। नेताजी ने उन्हें झांसी रानी रेजीमेंट नाम की नवगठित अखिल महिला ब्रिगेड का मुखिया बनाया।
अंग्रेजों ने बनाया था युद्धबंदी
सिंगापुर और मलेशिया में रहने वाले भारतीयों की बेटियां रेजिमेंट में शामिल हुईं। उन्हें हथियारों और युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। इसी दौरान लक्ष्मी सिंगापुर में आईएनए के एक शीर्ष अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल प्रेम सहगल से मिलीं और उन्हें प्यार हो गया। दिसंबर 1944 में कैप्टन लक्ष्मी की रानी रेजिमेंट ने भी कर्नल सहगल के नेतृत्व में आईएनए बलों के साथ जापानी सेना के साथ बर्मा तक मार्च किया। लेकिन जापानी सेना को बर्मा में मित्र देशों की सेना से एक बड़ा झटका लगा और अंग्रेजों द्वारा पकड़े गए लोगों में सहगल और लक्ष्मी जैसे आईएनए सैनिक भी थे।
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आजादी के बाद लक्ष्मी सीपीआई (एम) में शामिल हो गईं और 2002 में राज्यसभा सदस्य और संयुक्त विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनीं थी। उन्होंने बांग्लादेश युद्ध और भोपाल गैस त्रासदी के दौरान राहत शिविरों का नेतृत्व किया। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। अंत तक कैप्टन लक्ष्मी ने कानपुर में गरीबों को मुफ्त चिकित्सा सुविधा प्रदान करते हुए अपना क्लिनिक चलाया। पद्मविभूषण विजेता लक्ष्मी का 2012 में 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया।
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