Year Ender 2025 Divorce Case: 2005 में देश की अलग-अलग अदालतों ने तलाक, लिव-इन रिलेशनशिप, गुजारा भत्ता और व्हाट्सएप चैट जैसे सबूतों पर अहम फैसले दिए हैं। इन फैसलों ने साफ किया कि टूटे रिश्तों में कानून भावनाओं से ऊपर है और निष्पक्ष सुनवाई सर्वोपरि।
साल 2025 में तलाक से जुड़े कई ऐसे मामले सामने आए, जिनमें अदालतों ने पारंपरिक सोच से हटकर फैसले दिए। इन निर्णयों ने न सिर्फ कानून की नई व्याख्या की, बल्कि रिश्तों, अधिकारों और जिम्मेदारियों पर भी गहरा असर डाला। आइए जानते हैं 2025 के टॉप 5 डिवोर्स केस, जिन पर कोर्ट का फैसला चर्चा में रहा।
Supreme Court On Divorce: टूट चुका विवाह जबरन निभाना क्रूरता
प्रेम विवाह के बाद कपल में नहीं बनी और दो साल बाद से ही अलग रहने लगें। 24 साल से पत्नी पति को छोड़कर अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाल में फैसला देते हुए दोनों को तलाक दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि जो विवाह पूरी तरह टूट चुका हो, उसे जबरन बनाए रखना पति-पत्नी दोनों के लिए क्रूरता है और समाज के हित में भी नहीं है। इसी आधार पर कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए करीब 24 साल से अलग रह रहे दंपती को कानूनी रूप से अलग होने की अनुमति दी। जस्टिस मनमोहन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि आमतौर पर अदालतें विवाह की पवित्रता बनाए रखने की कोशिश करती हैं, लेकिन जब पति-पत्नी साथ रहने को तैयार न हों और मेल-मिलाप की कोई संभावना न बचे, तो विवाह खत्म करना ही बेहतर ऑप्शन होता है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि लंबे समय तक अलग रहना और वर्षों तक चलने वाला मुकदमा अपने-आप में तलाक का आधार बन सकता है और ऐसे मामलों में यह तय करना अदालत या समाज का काम नहीं है कि कौन सही है, बल्कि असली समस्या यह है कि दोनों एक-दूसरे को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
इलाहाबाद हाई कोर्ट: कमाने वाली पत्नी को गुजारा भत्ता का अधिकार नहीं
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जो पत्नी पति से बेहतर जीवन स्तर में रह रही हो और स्वयं कमाने में सक्षम हो, वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ता मांगने की हकदार नहीं है। न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह ने गौतम बुद्ध नगर निवासी अंकित साहा की याचिका पर सुनवाई करते हुए परिवार अदालत द्वारा पत्नी को 5 हजार रुपये प्रतिमाह गुजारा भत्ता देने के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि पत्नी ने खुद को बेरोजगार और अनपढ़ बताकर अदालत को गुमराह किया, जबकि रिकॉर्ड से स्पष्ट हुआ कि वह पोस्ट ग्रेजुएट है और सीनियर सेल्स को-ऑर्डिनेटर के रूप में हर महीने 36 हजार रुपये कमा रही है। अदालत ने माना कि धारा 125 के तहत भरण-पोषण तभी दिया जा सकता है जब पत्नी अपना गुजारा करने में असमर्थ हो, जबकि इस मामले में पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम थी और पति पर वृद्ध माता-पिता की देखभाल जैसी अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी थीं, इसलिए वह गुजारा भत्ता पाने की अधिकारी नहीं है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट का सख्त रुख: तलाक के बिना लिव-इन को बताया अवैध
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े एक मामले में बड़ा और सख्त फैसला सुनाते हुए कहा है कि कानूनी रूप से विवाहित महिला का पति से तलाक लिए बिना किसी अन्य पुरुष के साथ लिव-इन में रहना द्वि-विवाह और व्यभिचार के समान है तथा ऐसे अवैध संबंधों को किसी भी तरह की पुलिस सुरक्षा नहीं दी जा सकती। न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह की एकल पीठ ने सहारनपुर की एक महिला और उसके साथी की याचिका को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें उन्होंने शांतिपूर्ण जीवन जीने और सुरक्षा की मांग की थी। कोर्ट ने राज्य सरकार की दलील को स्वीकार किया कि महिला अब भी अपने पहले पति की वैध पत्नी है क्योंकि तलाक की कोई डिक्री पारित नहीं हुई है, भले ही मामला लंबित हो। हाई कोर्ट ने साफ कहा कि ऐसे मामलों में सुरक्षा देना व्यभिचार और द्वि-विवाह को संरक्षण देने जैसा होगा, जो कानूनन स्वीकार्य नहीं है।
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MP High Court On WhatsApp Chat Evidence: प्राइवेसी से ऊपर निष्पक्ष सुनवाई
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एक अहम फैसले में साफ किया है कि तलाक जैसे पारिवारिक विवादों में पति-पत्नी के बीच हुई व्हाट्सएप चैट को सबूत के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है, भले ही वह चैट किसी एक पक्ष की अनुमति के बिना हासिल की गई हो। जस्टिस आशीष श्रोती ने कहा कि फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 14 के तहत कोर्ट किसी भी ऐसे मटेरियल को देख सकती है जो विवाद सुलझाने में मददगार हो, चाहे वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम के सख्त नियमों में फिट न बैठता हो। कोर्ट ने माना कि प्राइवेसी का अधिकार अहम है, लेकिन जब आर्टिकल 21 के तहत प्राइवेसी और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार आमने-सामने हों, तो निष्पक्ष सुनवाई को प्राथमिकता दी जाएगी। हालांकि कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी सबूत को स्वीकार करना उसके सही साबित होने की गारंटी नहीं है; उसकी सत्यता की जांच होगी और गैरकानूनी तरीके से सबूत हासिल करने वाले को कानूनी कार्रवाई से छूट नहीं मिलेगी।
Delhi High Court: एक साल अलग रहने की शर्त अब जरूरी नहीं
दिल्ली हाई कोर्ट ने आपसी सहमति से तलाक (Mutual Consent Divorce) से जुड़े मामलों में बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा है कि याचिका दाखिल करने से पहले पति-पत्नी का एक साल तक अलग रहना हर हाल में जरूरी नहीं है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B(1) में दी गई यह अवधि अनिवार्य नहीं बल्कि परिस्थितियों पर निर्भर करती है और उपयुक्त मामलों में इसे माफ किया जा सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि अगर विवाह पूरी तरह टूट चुका हो, साथ रहने की कोई संभावना न हो और दोनों पक्ष तलाक पर सहमत हों, तो अदालत अलगाव की अवधि को नजर अंदाज कर सकती है, ताकि अनावश्यक मानसिक पीड़ा और लंबी कानूनी प्रक्रिया से बचा जा सके।
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