RSS ने अपने 100 साल के इतिहास में ब्रिटिश शासन और कांग्रेस सरकारों द्वारा कई प्रतिबंधों का सामना किया है। कांग्रेस द्वारा लगाए गए 3 प्रतिबंध कानूनी तौर पर विफल रहे। इन चुनौतियों के बावजूद संगठन का विस्तार जारी रहा।

RSS in India: सार्वजनिक जगहों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की गतिविधियों पर रोक लगाने वाला कर्नाटक सरकार का एक सर्कुलर हाल ही में काफी विवादों में रहा और मामला हाईकोर्ट तक पहुंच गया। कोर्ट ने सरकार के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी, जिससे RSS के खिलाफ कांग्रेस की लड़ाई पर फिलहाल ब्रेक लग गया है। वैसे, RSS को कंट्रोल करने, उस पर पाबंदी लगाने या बैन करने की मांग कोई नई नहीं है। RSS को अब 100 साल पूरे हो गए हैं और इसके खिलाफ उठने वाली आवाजों को भी जल्द ही 100 साल हो जाएंगे। फिर भी, RSS 'चरैवेति, चरैवेति' (चलते रहो, चलते रहो) कहते हुए अपना काम करता जा रहा है।

परिषद में अंग्रेजों को मिली थी मुंह की

आजादी से पहले, मैसूर जैसी कई रियासतों पर अंग्रेज सामंतों के जरिए शासन करते थे। बाकी ग्यारह राज्यों में, वे स्थानीय प्रतिनिधियों वाली प्रांतीय विधान परिषदों के फैसलों के आधार पर सीधे गवर्नर के जरिए राज करते थे। मध्य प्रांत और बरार राज्य अंग्रेजों के प्रमुख राज्यों में से एक था। इसी राज्य के नागपुर में 1925 में विजयादशमी के दिन RSS की शुरुआत हुई। कुछ ही सालों में 20 हजार से ज्यादा स्वयंसेवक इसकी रोज की शाखाओं में आने लगे। संगठन की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। एक राष्ट्रवादी संगठन का इस तेजी से बढ़ना उस समय की ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ाने लगा।

RSS को रोकने के लिए अंग्रेजों ने एक योजना बनाई। पहले कदम के तौर पर, 1932 में उन्होंने सरकारी कर्मचारियों के RSS सदस्य बनने और उसकी गतिविधियों में हिस्सा लेने पर रोक लगा दी। 1933 में इसे स्थानीय प्रशासन तक बढ़ा दिया गया। इन सबके बावजूद, RSS समाज में मजबूती से अपनी जड़ें जमाता गया। समाज के जाने-माने लोगों ने ब्रिटिश सरकार के RSS-विरोधी रुख के खिलाफ आवाज उठाई। 7, 8 और 9 मार्च 1934 को हुए विधान परिषद के सत्र में इस पर लंबी बहस हुई। परिषद में सरकार की पाबंदी के खिलाफ प्रस्ताव पास हो गया, जिससे अंग्रेजों को भारी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और RSS को दबाने की उनकी साजिश नाकाम हो गई। आजादी के बाद सत्ता में आई कांग्रेस ने अंग्रेजों के इस अधूरे सपने को पूरा करने की लगातार कोशिश की है और आज भी कर रही है।

संघ पर इंदिरा का प्रहार

गोहत्या पर बैन लगाने की मांग को लेकर 7 नवंबर 1966 को RSS की अगुवाई में संसद के सामने एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था। उस प्रदर्शन को दबाने के लिए कांग्रेस सरकार ने गोली चलवा दी, जिसमें दर्जनों प्रदर्शनकारी मारे गए। इस घटना के बाद RSS के पक्ष में बने जनमत और मिले भारी जनसमर्थन से कांग्रेस घबरा गई और RSS को कंट्रोल करने के लिए रणनीति बनाने लगी। उसने जो कई हथियार इस्तेमाल किए, उनमें सरकारी कर्मचारियों पर पाबंदी लगाना एक मुख्य तरीका था। केंद्रीय नागरिक सेवा (आचरण) नियम, 1964 के मुताबिक, कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी राजनीतिक दल या सक्रिय राजनीति में शामिल किसी संगठन से नहीं जुड़ सकता था। इसी शर्त को आधार बनाकर इंदिरा सरकार ने 30 नवंबर 1966 को एक आधिकारिक आदेश जारी किया कि अगर सरकारी कर्मचारी RSS के सदस्य बनते हैं या उसकी गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं, तो इसे नियमों का उल्लंघन माना जाएगा और उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है। इस आदेश को और सख्त करते हुए 25 जुलाई 1970, 28 नवंबर 1975 और 28 अक्टूबर 1980 को इसे संशोधित करके फिर से जारी किया गया।

म.प्र. हाईकोर्ट से मिली फटकार

RSS को निशाना बनाकर पूर्वाग्रह से जारी किए गए इन आदेशों में संविधान की भावनाओं को ताक पर रख दिया गया था। इस बात को समझते हुए मौजूदा सरकार ने 9 जुलाई 2024 को एक नए आदेश के जरिए पिछले आदेशों को रद्द कर दिया। इसके तुरंत बाद, 25 जुलाई को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया, जिसने मौजूदा सरकार के काम को और मजबूती दी। कोर्ट ने कहा, 'अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके RSS जैसे संगठन को प्रतिबंधित सूची में डालना गलत था और इसे हटाना जरूरी है। केंद्र सरकार को अपनी गलती का एहसास होने में पांच दशक लग गए। RSS की ज्यादातर गतिविधियां राजनीति से जुड़ी नहीं हैं।' ये बातें उन लोगों के मुंह पर तमाचा हैं जो झूठे आरोपों के तहत RSS पर पाबंदी लगाने की कोशिश करते हैं।

कांग्रेस की बैन लगाने की कोशिशें

केंद्र में लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस सरकारों ने RSS पर पहले तीन बार बैन लगाया है, लेकिन वे ज्यादा समय तक टिक नहीं पाए। 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या हिंदू महासभा के गोडसे ने की थी, लेकिन नेहरू सरकार ने महासभा पर बैन नहीं लगाया। इसके बजाय, इस घटना पर बेबुनियाद आरोप लगाकर 4 फरवरी को RSS पर बैन लगा दिया गया। इस साजिश में RSS की कोई भूमिका नहीं थी, यह बात तत्कालीन गृह मंत्री पटेल ने खुद 27 फरवरी को प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर साफ की थी। तो फिर बैन के पीछे का असली राज क्या था?

कांग्रेस को यह समझ आ गया था कि अगर अपनी मजबूत राष्ट्रवादी विचारधारा से भारत की आजादी तक प्रभावशाली बन चुके RSS को कंट्रोल नहीं किया गया, तो आजाद भारत की राजनीति में उनके हितों को नुकसान पहुंचना तय है। इसलिए कांग्रेस ने गांधीजी की हत्या को RSS को नियंत्रित करने का एक जरिया बनाने की कोशिश की। बैन लागू रहने के दौरान ही, पटेल ने 11 सितंबर को RSS के सरसंघचालक (प्रमुख) गोलवलकर को सरकार की तरफ से चिट्ठी लिखकर सभी RSS कार्यकर्ताओं को कांग्रेस में शामिल होने के लिए कहा। इसके जवाब में, 2 नवंबर को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गोलवलकर ने कांग्रेस के प्रस्ताव को साफ तौर पर खारिज कर दिया। इसके बाद दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों के बीच बैठकें भी हुईं, जो नाकाम रहीं। इन सबसे बौखलाई कांग्रेस ने गोलवलकर को फिर से गिरफ्तार कर लिया और बैन को और सख्त कर दिया।

कांग्रेस की पहली कोशिश नाकाम

RSS पर सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ धीरे-धीरे एक मजबूत जनमत बना। इसका नतीजा यह हुआ कि कोई और रास्ता न देखकर सरकार ने 12 जुलाई 1949 को बैन हटा लिया। बाद में यह झूठी खबर भी फैलाई गई कि 'RSS के गैर-राजनीतिक रूप से काम करने पर सहमत होने के कारण बैन हटाया गया'। जो भी हो, RSS और उसकी विचारधारा को रोकने की कांग्रेस की पहली कोशिश नाकाम हो गई।

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश पर असंवैधानिक रूप से इमरजेंसी लगा दी। लोकतंत्र को बचाने के लिए इसके बाद जो आंदोलन शुरू हुआ, उसमें त्याग, बलिदान और राष्ट्रसेवा के लिए जाने जाने वाले RSS के स्वयंसेवक सबसे आगे थे। इंदिरा ने यह भांप लिया कि उनका संघर्ष उनकी सत्ता के लिए खतरा बन सकता है, इसलिए उन्होंने 4 जुलाई को RSS पर बैन लगा दिया। हजारों स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। इन सबके बीच, 18 महीनों के सफल भूमिगत अभियान और संघर्ष के परिणामस्वरूप, आम चुनाव में कांग्रेस हार गई और जनता पार्टी सत्ता में आई। इसके तुरंत बाद, 22 मार्च 1977 को बैन हटा लिया गया और कांग्रेस की दूसरी कोशिश भी नाकाम हो गई।

आगे चलकर 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बने बाबरी ढांचे को रामभक्तों ने गिरा दिया। इसके सिर्फ चार दिन बाद, सच्चाई से कोसों दूर आरोप लगाकर RSS पर बैन लगा दिया गया। यह मामला जब जस्टिस बाहरी की अध्यक्षता वाले ट्रिब्यूनल के सामने आया, तो इस पर विस्तार से सुनवाई हुई और RSS पर लगे आरोप झूठे साबित हुए। 4 जून 1993 को यह बैन भी रद्द कर दिया गया।

पाबंदी और बैन के बयानों का कोई मोल नहीं

कांग्रेस के कुछ नेता अक्सर ऐसे पूर्वाग्रह से भरे बयान देते रहते हैं कि अगर वे केंद्र में सत्ता में आए तो RSS पर न केवल पाबंदी लगाएंगे, बल्कि उसे हमेशा के लिए बैन कर देंगे। ऐसे बयानों के पीछे यह घटिया सोच भी होती है कि इससे एक खास समुदाय का वोट पक्का हो जाएगा। समाज में RSS को लेकर जो चर्चा और धारणा है, उसके कारण ऐसे बयानों को खूब प्रचार भी मिलता है और उन पर अंतहीन बहसें भी होती हैं। जो भी हो, ऐसी बातों का न तो कोई महत्व है और न ही कोई मोल। कांग्रेस सरकार ने पहले RSS पर पाबंदी लगाने और बैन करने की जो भी कोशिशें की हैं, वे सफल नहीं हुईं, और आगे भी यह संभव नहीं है। सौ सालों से संविधान के दायरे में रहकर काम करते हुए एक विशाल बरगद के पेड़ की तरह बढ़ चुके RSS के लिए बाबासाहेब के विचार ही श्रीरक्षा (सुरक्षा कवच) हैं, यह बात कांग्रेस भी जानती है।

(लेखक - विकास पुत्तूर)